चाँद और फिज़ा के बहाने

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चाँद मोहम्मद का रहस्यमय ढंग से लापता होना और फिर फिज़ा का जहर खा लेना। यह दोनों स्थिति किसी भी रूप में शुभ नहीं है। शुभ यह भी नहीं था कि हरियाणा के मंत्री भजनलाल के पुत्र चन्द्रमोहन को दूसरी शादी के लिए चाँद बनना पड़ा और वकील अनुराधा बाली को फिज़ा। लेकिन यह त्वरित गति से कुछ भी कर गुजरने का युग है। यहाँ अपनी सुविधा के लिए आप धर्म भी परिवर्तित कर लेते हैं और अपनी सहूलियत के हिसाब से प्यार की नई परिभाषा भी रच लेते हैं।

एक जानेमाने नेता का पुत्र पहले अपनी प्रेमिका के लिए न सिर्फ अपना धर्म बदलता है, बल्कि अपनी सारी जायदाद भी छोड़ने के लिए राजी हो जाता है। फिर शुरू होता है मीडिया पर एक बकवास प्रेम कहानी का प्रसारण। बिना किसी संवेदना के चलता है एक ऐसा सिलसिला जिसमें दूसरी शादी सामान्य है और शादी के लिए धर्म का बदलना एक महान कृत्य। सब जायज है। नैतिक मूल्यों को ताक पर रख अपने प्यार(?) का गरिमाहीन प्रदर्शन भी और धर्म को बदलकर जीवन साथी बनना भी।

जब यह सब कर ही लिया था तो दोनों व्यक्तियों को नैतिक रूप से इतना मजबूत होना था कि परिस्थितियों का सामना कर सकें। न तो चाँद का गायब होना एक सही संकेत है न ही उनका फोन पर यह कहना कि मैं अपनी मर्जी से गया था। इधर फिज़ा का मीडिया के सामने कुलदीप विश्नोई पर आरोप लगाना और फिर जहर खा लेना भी सारी स्थि‍‍ति को गंभीर के बजाय हास्यास्पद अधिक बना रहा है।

उपलब्ध तथ्यों से जो चीजें स्पष्ट हो रही हैं उनमें चाँद और फिज़ा का आपसी मनमुटाव अधिक नजर आ रहा है। उसके गायब होने से भी इस संदेह को पुष्टि मिलती है कि जिस विवाह को उन्होंने गायब होकर ही संपन्न किया था उसे वे बचा नहीं पा रहे होंगे इसलिए अपने स्वभावानुसार गायब होना ही उन्हें रास आया। अगर चाँद और फिज़ा का प्यार बरकरार होता तो ऐसी विपरीत परिस्थितियों में वह साहस के साथ खड़ी होती और अपने प्यार को बचा लाने की कोशिश करती। क्योंकि प्यार एक शक्ति देता है न कि कमजोरी बनकर आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर करता है। कम से कम सारी स्थिति स्पष्ट होने तक तो फिज़ा को हिम्मत से काम लेना था।

  महज समय विशेष का आकर्षण नहीं है प्यार, समय, स्थान और दूरियाँ भी जिसे प्रभावित न कर सकें सही मायनों में वही प्यार है। शेष तो सिर्फ भावनात्मक उतार-चढ़ाव का खेल होता है जिसे कभी जिंदगी हमारे साथ खेलती है और कभी हम जिंदगी के साथ।      
लेकिन ये जल्दबाजी में किए गए कथित प्यार की वास्तविक परिणति है। इससे पहले भी मीडिया में खूब प्यार के किस्से चटखारे लेकर परोसे गए। चाहे वह जूली-बटुकनाथ हो या सैफ-करीना। मीडिया जिस रुचि के साथ इनके प्यार या विवाह की खबर परोसता है उसी दिलचस्पी के साथ उनके अलगाव के प्रकरण पर टीआरपी बटोरता है। सवाल यह नहीं है कि मीडिया यह सब क्यों करता है, सवाल यह है कि प्यार जैसी मखमली सुकोमल अनुभूति तमाशा क्यों बना दी जाती है?

यहाँ मीडिया से अधिक दोष उन कपल्स (जोड़ों) का होता है जो परिपक्व होते हुए भी प्यार की गहराई को नहीं समझ पाते। प्यार प्रदर्शन, प्रसारण और प्रकाशन से अधिक परस्पर सामंजस्य का नाम है। पहले स्वयं को जानें, पहचानें और महसूस करें कि क्या जिसे प्यार समझ रहे हैं वह सचमुच प्यार है? और अगर है भी तो क्या जरूरी है सारे जमाने के सामने उसका तमाशा बनाया जाए।

महज समय विशेष का आकर्षण नहीं है प्यार, समय, स्थान और दूरियाँ भी जिसे प्रभावित न कर सकें सही मायनों में वही प्यार है। शेष तो सिर्फ भावनात्मक उतार-चढ़ाव का खेल होता है जिसे कभी जिंदगी हमारे साथ खेलती है और कभी हम जिंदगी के साथ। चाँद-फिज़ा के बहाने अगर अपने ही 'दूसरे-तीसरे' प्यार को परखना पड़े तो हर्ज ही क्या है? कम से कम उस अँधेरी राह से लौट आने का मौका तो मिल जाएगा। आप क्या सोचते हैं?

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