।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।
उत्तर : जैन, हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई का एक धड़ा मूर्ति पूजा को नहीं मानता है। हिन्दुओं में आर्य समाज और वैदिक समाज प्रतिमा पूजा का विरोधी है। मजारों या कब्रों को पूजना भी मूर्ति पूजा का ही दूसरा रूप है। इस तरह हम देखते हैं कि विश्व की आधे से ज्यादा जनसंख्या मूर्तिपूजक है। पंचभूतों से निर्मित किसी भी आकार-प्रकार पर श्रद्धा स्थिर करना मूर्तिपूजा है। किसी भी देव या पवित्र स्थल की परिक्रमा करना या उसके समक्ष झुकना मूर्ति पूजा ही है। कौन मूर्तिपूजक नहीं है?
ईश्वर की कोई मूर्ति बनाई नहीं जा सकती इसीलिए सिर्फ देवी और देवताओं की ही मूर्तियां बनती है। ऐसे कई स्थान हैं जहां पर देवी या देवता जाग्रत रूप से विद्यमान हैं। वहां उनकी मूर्ति नहीं भी होगी तो भी वे होंगे। ऐसे सभी स्थानों को हम वैदिक बनकर उनके खिलाफ नहीं जा सकते, क्योंकि वे सभी भी ईश्वर की ओर से हैं। यदि हम हिन्दुओं को दो हिस्से में बांट दें, तो एक को कहेंगे वैदिक और दूसरे को कहेंगे पौराणिक। जो पौराणिक हैं वे सभी मूर्तिपूजक हैं।
ओशो कहते हैं कि मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्चित ही वह सेतु मूर्त ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे। ये मंदिर व मूर्तियां आध्यात्मिक देश भारत में अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं।
मूर्तिपूजा का पक्ष : मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्तिपूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।
प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि ये मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जाते हैं।
मूर्तिपूजा के पक्ष में पं. दीनानाथ शर्मा लिखते हैं- 'जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रयस्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्तिपूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्याप्त चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं। आप जिस बुद्धि या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं, क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?
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यह सही है कि सृष्टि की सबसे पुरानी पुस्तक वेद में एक निराकार ईश्वर की उपासना का ही विधान है। चारों वेदों के लगभग मूल 20,589 मंत्रों में कोई ऐसा मंत्र नहीं है, जो मूर्ति पूजा का पक्षधर हो, लेकिन फिर भी मूर्ति पूजा करना कोई अपराध नहीं है यह सिर्फ अज्ञान है। देवी या देवताओं की कुछ खास स्थान पर की जा रही मूर्ति पूजा को अनुचित ठहराना कही से भी उचित नहीं है। ऐसे कुछ स्थानों को छोड़कर बाकी जगह पर मूर्ति का होने क्या उचित हैं?
न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस:। -(यजुर्वेद अध्याय 32, मंत्र 3)
अर्थात: उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है।
अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते।
ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता:।। -(यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9)
अर्थात : जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं, वे लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं।
*जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है। – (शतपथ ब्राह्मण 14/4/2/22)
अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है उन की उपासना मत कर॥
भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।
जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा अजन्मा है और अमूर्त है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है। यह सही भी है कि आज तक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनी है। देवी, देवताओं, पितरों, गुरुओं और भगवानों की मूर्ति बनी है।
हालांकि उपरोक्त बातें ईश्वर संबंधी हैं, देव संबंधी नहीं। प्राचीनकाल में कलयुग के प्रारंभ में देवी और देवताओं के विग्रह रूप की पूजा होती थी। जैसे विष्णु की शालिग्राम के रूप में और शिव की शिवलिंग के रूप में। फिर श्रमण धर्म का प्रभाव बढ़ने के साथ ही 2,000 वर्ष पूर्व 33 देवता और देवियों सहित राम एवं कृष्ण आदि की मूर्तियां बनाकर पूजने का प्रचलन चला।
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मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए। ऐसे दुनियाभर में सात मंदिर थे। दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे। तीसरे वे, जिन्होंने अपने-अपने देवता गढ़ लिए थे। हर कबीले का एक देवता होता था। कुलदेवता और कुलदेवी भी होती थी।
शोधकर्ताओं के अनुसार अरब के मक्का में पहले मूर्तियां ही रखी होती थीं। वहां उस काल में बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह और महाराजा बलि सहित लगभग 360 मूर्तियां रखी हुई थीं। ऐसा माना जाता है हालांकि इसमें कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते कि जाट और गुर्जर इतिहास अनुसार तुर्किस्तान पहले नागवंशियों का गढ़ था। यहां नागपूजा का प्रचलन था।
भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य काल (वैदिक काल) से ही रहा है। भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इन्द्र आदि की पूजा की जाती थी। वैदिक काल के पतन और अनीश्वरवादी धर्म के उत्थान के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया।
कहते हैं कि वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं। भगवान कृष्ण के काल में लोग इन्द्र नामक देवता से जरूर डरते थे। भगवान कृष्ण ने ही उक्त देवी-देवताओं के डर को लोगों के मन से निकाला था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति-शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला रहा होगा।
प्राचीन अवैदिक मानव पहले आकाश, समुद्र, पहाड़, बादल, बारिश, तूफान, जल, अग्नि, वायु, नाग, सिंह आदि प्राकृतिक शक्तियों की शक्ति से परिचित था और वह जानता था कि यह मानव शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है इसलिए वह इनकी प्रार्थना करता था। बाद में धीरे-धीरे इसमें बदलाव आने लगा। वह मानने लगा कि कोई एक ऐसी शक्ति है, जो इन सभी को संचालित करती है। वेदों में सभी तरह की प्राकृतिक शक्तियों का खुलासा कर उनके महत्व का गुणागान किया गया है। हालांकि वेदों का केंद्रीय दर्शन 'ब्रह्म' ही है।
पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज जन इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। वे यज्ञ द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है। अथर्ववेद की रचना के बाद हिन्दू समाज में दो फाड़ हो गई- ऋग-यजु और साम-अथर्व।
इस तरह वेदों में ईश्वर उपासना के दो रूप प्रचलित हो गए- साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि ऋषि-मनीषियों ने दोनों उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया था।
शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।
मान्यता के अनुसार महाभारत काल तक अर्थात द्वापर युग के अंत तक देवी और देवता धरती पर ही रहते थे और वे भक्तों के समक्ष कभी भी प्रकट हो जाते थे। तब उनके साक्षात रूप की पूजा या प्रार्थना होती थी। लेकिन कलयुग के प्रारंभ होने के बाद उनके विग्रह रूप की पूजा होने लगी। विग्रह रूप अर्थात शिवलिंग, शालिग्राम, जल, अग्नि, वायु, आकाश और वृक्ष रूप आदि की।
अब सवाल यह उठता है कि हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिन्दू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?
यह कहना उचित नहीं हैं कि भारत में जो लोग अनीश्वरवादी थे। उन्होंने अपने प्रॉफेटों, पूर्वजों आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया। इन अनीश्वरवादियों में जैन, चार्वाक, न्यायवादी आदि धर्म के लोग थे। महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध मंदिर बनने लगे। जिसमें बुद्ध और महावीर की मूर्तियां रखकर उनकी पूजा होने लगी। इन्हीं को देखते हुए हिन्दुओं ने भी राम और कृष्ण के मंदिर बनाए और इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ। दरअसल, महावीर और बुद्ध की मूर्तियों के पूर्व भी हिन्दुओं ने मूर्ति आधारित देवालयों का निर्माण कर लिया था। जिसमें माता के शक्तिपीठ, शिवलिंग और विष्णु मंदिर प्रमुख है।