क्या पुनर्जन्म के बाद भी व्यक्ति को श्राद्ध लगता है?

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। हिन्दू धर्म के अनुसार कर्मों की गति के अनुसार व्यक्ति को दूसरी योनि मिलती है। यदि किसी को नहीं मिली है तो फिर वह प्रेत योनि में चला जाता है या यदि अच्‍छे कर्म किए हैं तो पितृलोक या देवलोक में कुछ काल रहने के बाद पुन: मनुष्य योनि में आता है। निश्‍चित ही है कि जिन्हें प्रेत योनि मिली है और जो पितृलोक चले गए हैं उनके लिए भी श्राद्ध कर्म किया जाता है, लेकिन जिन्होंने दूसरा जन्म ले लिया है क्या उन्हें भी श्राद्ध का फल मिलता है?
 
 
1.प्रेत योनि : गति कई प्रकार की होती है। प्रेतयोनि में जाना एक दुर्गति है। पितरों का श्राद्ध करने वाले और उनका तर्पण करने वाले उनकी सद्गति के लिए सहयोग करते हैं। हमारे जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए 'गया' में मुक्ति-तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। कहते हैं कि गया में श्राद्ध करने के उपरांत अंतिम श्राद्ध बदरीका क्षेत्र के 'ब्रह्मकपाली' में किया जाता है जहां से आत्मा प्रेत योनी से छूटकर मनुष्य योनी में जन्म ले लेती है या पितृलोक में पितरों के साथ निश्‍चित काल के लिए चली जाती है।
 
 
2.पितृलोक के पितृ : मान्यता है कि पितृलोक में किसी आत्मा का पहुंचना बहुत ही सौभाग्य की बात होती है। वहां वह अपने सभी पूर्वजों से मिलकर सभी संतापों से मुक्त होकर रहता है और सुख भोगने के बाद एक निश्‍चित काल के बाद मनुष्‍य योनी धारण करता है। जब धरती पर पितृपक्ष प्रारंभ होता है तब ऐसी ही हमारे पितृ अपने वंशजों को देखने के लिए धरती पर आते हैं और उनके द्वारा किए जा रहे श्राद्ध कर्म का भोग ग्रहण करके उन्हें आशीर्वाद देकर उनके दुखों को मिटा देते हैं।
 
 
3.पुनर्जन्म लेने वाले पूर्वज : यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात्य, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सतकर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। अत: ऐसे पूर्वजों को भी उनके वंशजों द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म लगता है।
 
 
दरअसल, शास्त्रों में कहा गया है कि हम अन्न-जल को अग्नि को दान करते हैं। अग्नि उक्त अन्न-जल को हमारे पितरों तक पहुंचाकर उन्हें तृप्त करती है। श्राद्ध और तर्पण जिसके निमित्त किया गया उस तक जल और अग्नि के माध्यम से यह सुगंध रूप में पहुंचकर उन्हें तृप्त करता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणित होकर उसी अनुमात और मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी वर्तमान में है। इस संबंध में पुराणों में कई जगहों पर उल्लेख मिलता है कि उस जीवित प्राणी को भी श्राद्ध के भोग का अंश मिलता है जिससे कि उसका हृदय तृप्त हो जाता है। जल, अग्नि और वायु उसके अंश को पहुंचाने में माध्यम बनते हैं।

 
4.यमलोक की यात्रा : आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है। गरूड़ पुराण में यमपुरी के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।
 
यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।

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