क्या भारत पाक, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका एक होंगे...

क्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और श्रीलंका एक हो सकते हैं? विचित्र असंभव वाणी शायद कभी सत्य हो...? गलत और अनैतिक उम्मीद है न ये? लेकिन किस तरह से गलत और नीति के विरुद्ध है?

विदेशी वित्तपोषित मीडिया घरानों के लिए एक नई कहानी होगी? उनके इशारों पर यहीं के कथित देशभक्त चीखेंगे-चिल्लाएंगे। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन जैसे देशों का तो धंधा बंद हो जाएगा? कहां बेचेंगे अपने हथियार? कहां बेचेंगे अपनी कठोर व्यावसायिक कंपनियों के उत्पाद? अत्यधिक उपभोगी, विलासी जीवन जीने वाले इनके नागरिक भूखों मरने लगेंगे ना?

जयचंद और मीर जाफर जैसे गद्दारों को पैसा देकर उकसाया जाएगा कि देशभक्ति के नाम पर मानवों को लामबंद करो। बहसें होंगी, मीडिया अनैतिक और विध्वंसकारी बयानों को उठाएगा जनता के बीच अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए और व्यवसायियों की महत्वाकांक्षा में निर्दोषों का गला रेता जाएगा।

पेप्सी, रिन, कोलगेट, लक्स, नेस्कैफे बेचने वाला मीडिया कैसे इस संस्कृति का हो सकता है? अपनी संस्कृति में पूजी जाती कन्या आज के खुले विश्व में कैसे चीयरगर्ल बन गई? किसको दोष दूं, जब स्त्री का ही आजादी के नाम पर पतन हो जाएगा तो बच्चों का भविष्य कौन बचाएगा, कौन ममत्व और भावुकता का भाव लाएगा पीढ़ियों में?

कॉर्पोरेट चश्मे से इस उपमहाद्वीप को देखने वाले मानव का सपना अमेरिका, स्विट्जरलैंड, कनाडा और ब्रिटेन होता है न कि अपना आध्यात्मिक रूढ़िवादी संसार। कितने तथ्य हैं और कितने ही साक्ष्य हैं 'सिंधुस्थान' की उम्मीद को संपूर्णता प्रदान करते। इतिहास को टटोलता हूं तो एक कहानी साकार रूप लेने लगती है।

 

कैसे बना हिमालय और हिन्दुस्तान...अगले पन्ने पर...


वो जंबूद्वीप जो चारों ओर समुद्र से घिरा था, पता नहीं ग्रंथों ने इसको युगों में कैसे परिभाषित किया था? उस उल्कापिंड के गिरने से महाप्रलय, फिर मनु की नौका में कुछ लोगों को बचाकर लाती हुई मानवता की कहानी हर सभ्यता के इतिहास में क्यों एक-सी मिल जाती है?

लोग बताते हैं मैन, मानव, इंसान उसी की संतान हैं। लेकिन दूसरी तरफ मानवता एक और करवट ले रही होती है, जब गोंडवानालैंड या जम्बूद्वीप महाप्रलय के दौरान हुई उथल-पुथल से टेक्टोनिक प्लेटों के विस्थापन द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप को जन्म दे रहा होता है।

तेजी से अफ्रीका से लगे टैथिस सागर को चीरता हुआ ये भू-भाग जब मध्य एशिया से टकराता है तो इतिहास की महागाथा की शुरुआत होती है।

विरल पृथ्वी में सरल जीवन को जन्म देने के लिए हिमालय का उन्नत मस्तक जलवायु को स्थिर करता है और दूसरी तरफ सिंधु, ब्रह्मपुत्र और गंगा मानवता के इतिहास को गढ़ने लगती हैं। गंगा का दोआब, सिंध का पंजाब और ब्रह्मपुत्र का हिमालय का चंद्रहार बनना कोई सामान्य घटना नहीं थी वरन इस महाद्वीप को जीवन सुलभ बनाने का अनंत प्रयास शुरू हुआ था जिसकी पुष्टि आज का पाश्चात्य विज्ञान भली-भांति कर रहा है।

प्राकृतिक आच्छादन व जंगलों का चरम विज्ञान इस धरा के जंगलियों की बुनियाद रखता है।

उद्भव होता है जीवन के सर्वश्रेष्ठ रूप का, जब शिव का सूक्ष्म विज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। शिव के अन्वेषण में ऊर्जा का विस्मयकारी वर्णन हुआ। पाषाण लिंग में सूक्ष्म श्वेत बिंदु पर ध्यान लगाकर पारलौकिक अनुभव और मंद स्वर से 'आ', 'ऊ', 'म' का नाद शरीर में स्थित प्रत्येक अणु की ऊर्जा को केंद्रित कर देता था।

इस अध्यात्म में कहीं भी किसी देवता की मूर्ति नहीं है, कहीं कोई अगरबत्ती नहीं है, कहीं कोई फूलमाला नहीं है और कहीं भी विधि-विधानों से युक्त कोई कर्मकांड नहीं है।

एक फक्कड़ी, भभूत से सना, जंगलों-पहाड़ों-नदियों में रमता, भांग में मस्त, हिंसक-वनैले जीवों के साथ मन बहलाता, डमरू और शंख के नाद में उन्मत्त उछलता-नाचता, अध्यात्म विज्ञान से मानव जीवन की व्याख्या करता अद्भुत योगी इस धरा पर मानवता का प्रकृति के साथ संगम कराता रहा।

यहां से निकला मानव ‍फिर कहां-कहां फैला पढ़ें अगले पेज पर...


जम्बूद्वीप अब एशिया का भाग बन चुका था। मानव बढ़ रहा था, परिवार बढ़ रहे थे और वंश फैल रहे थे।

यहां से निकला मानव इराक, ईरान, तुर्की, अरब, जेरुशलम, मिस्र जैसे मध्य और पश्चिम एशिया के इलाकों तक फैल गया। जिसका प्रमाण इनके ऐतिहासिक व धार्मिक लेख तो देते ही हैं साथ ही साथ समान लंबाई, बालों का काला रंग तथा बनावट, एक जैसी मूछें-दाढ़ी, चमड़ी का रंग, उंगलियों की बनावट, उन्नत ललाट, समान भावनात्मक रिश्ते, सहिष्णुता प्रधान हृदय व प्रकृति से अत्यधिक लगाव अपने जींस की एकात्मकता को स्वयं बयान करते हैं।

परंतु यह सहिष्णु मानव अफ्रीका के घुंघराले बालों, बलिष्ठ शरीर वालों तथा उत्तरी एशिया के भूरे बालों, अत्यधिक गौर, हिंसक व भूखे मानवों से नहीं लड़ पा रहा था, क्योंकि यह बड़ी सुलभ जलवायु का वासी था जिसे पेट भरने के लिए शरीर की बलिष्ठता का उपयोग नहीं करना पड़ता था और इसी वजह से अत्यधिक सहिष्णु, अहिंसक भी था, साथ ही साथ मस्तिष्क की असाधारण क्षमता से परिपूर्ण भी।

अफ्रीका व यूरोपवासियों से यह मानव शरीर सौष्ठव में तो नहीं जीत सकता था, परंतु अपने मस्तिष्क के जरिए वो इन पर आधिपत्य जमा सकता था और इसका हल था पुरोहित वर्ग का अभ्युदय।

यहां से अध्यात्म या सूक्ष्म विज्ञान का अंत होना शुरू हुआ। अब मानव बिजली कौंधने को भगवान का प्रकोप मानने लगा, युद्धों में पुरोहितों का सक्रिय भाग होने लगा, वर्षा-तूफानों-मौसमी प्रकोप में भगवान का क्रोध समझाया जाने लगा, प्लेग जैसी महामारियों का इलाज पुरोहितों द्वारा मासूमों की बलि दिए जाने से होने लगा, हर घटना में भगवान का खौफ दिखाया जाने लगा, कर्मकांडों, मूर्तियों और विधि-विधानों ने अध्यात्म पर अपना प्रभुत्व जमा लिया।

शरीर से सौष्ठव व्यक्तियों के मस्तिष्क को काबू करने का यह सबसे सरल तरीका था। चूंकि अध्यात्म का स्थूलता से संबंध नहीं था इसलिए अब तक न तो मंदिर बने थे, न मंत्र लिखे गए थे, न इतिहास की आवश्यकता थी और न ही सभ्यताओं में भेद था।

परंतु अब मानसिक तथा शारीरिक श्रम पर जीवित मनुष्यों का जुड़ाव होने पर पुरोहितों की उपस्थिति ने स्थूल निर्माण पर जोर डाला और 'मानव' सभ्यताओं व धर्मों में लामबंद होने लगा। मिस्र, मेसोपोटामिया, माया, बेजेंटाईन, इंका, रोम, बेबीलोन, सिंधु इत्यादि इसका ज्वलंत उदाहरण थीं।

संपूर्ण विश्व का हृदय वो सूक्ष्म आध्यात्मिक भारत भी इस उथल-पुथल से अछूता नहीं रह पाया। यहां पर भी सत्ता, धर्म और सभ्यताओं का टकराव शुरू हुआ। पहली बार यहां के श्रुत-प्राकृतिक पीढ़ियों के विज्ञान को लेखनी ने पत्तों-छालों पर समेटना शुरू किया और जंगली साधुओं ने वेदों को जन्म दिया।

वेदों का विज्ञान और सटीक गणना, अगले पन्ने पर...


इन वेदों के जरिए आज की पीढ़ी को पता चलता है कि उस वक्त का विज्ञान आज के विज्ञान से कितना अधिक उन्नत था। जिन सिद्धांतों का विश्व अंधविश्वास कहकर उपहास उड़ाता रहा उनकी पुष्टि आज का विज्ञान कर रहा है। उदाहरणतः जैसे तरंगों के माध्यम से संजय द्वारा महाभारत का वर्णन आज के मोबाइल फोन, टीवी इत्यादि ने समरूप कर दिया। 'युग सहस्र योजन पर भानु, लील्यो ताही मधुर फल जानु' एक कड़ी है हनुमान चालीसा की, इसमें सूर्य की पृथ्वी से दूरी की सटीक लंबाई वर्णित है:-

1 युग = 12000 साल
1 सहस्र = 1000
1 योजन = 8 मील
1 मील = 1.6 किमी

= 12000×1000×8×1.6 = 15,36,00,000 किमी (नासा की भी लगभग यही गणना है)

रक्तबीज की बारंबार उत्पत्ति मानव क्लोनिंग की पहली घटना थी। 7 रंगों में सूर्य की रोशनी का विभाजन, पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, अंग प्रत्यारोपण इत्यादि बाकी विश्व का मानव 19वीं शताब्दी में जान पाया। फोटॉन के भीतर हिग्स बोसॉन की उपस्थिति जानने के लिए संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक महामशीन पर महाप्रयोग कर रहे हैं।

लेकिन यहां के जंगली कृष्ण ने तो उससे भी सूक्ष्म प्राण, प्राण से सूक्ष्मतम आत्मा और आत्मा की यात्रा परमात्मा तक को परिभाषित कर डाला था गीता में। जिस नैनो तकनीकी की तुम खोज करने जा रहे हो, भारतीय विज्ञान का आधार ही वही था।

अरे अभी तो विश्व को अपने भौतिक साधनों से हजारों साल और खोजें करनी हैं शिव के अध्यात्म को समझने के लिए कि कैसे उन्होंने बिना इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के जान लिया था कि सूक्ष्मतम न्यूक्लियस के चारों ओर घेरा होता है जिसका इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते हैं। शिवलिंग में स्थित बिंदु और उसका घेरा इसका प्रमाण है।

चेतन-अवचेतन जीवन की परिभाषा तय करने के लिए उसे अभी अथाह खोज करनी है, E=mc² पर अभी बहुत शोध करोगे, तब जान पाओगे कि किस प्रकार सभी अणुओं की सामूहिक ऊर्जा जब केंद्रित हो जाती है तो अंतर्ध्यान होना, शारीरिक स्थानांतरण, दीर्घ अथवा संकुचित होना और इससे भी अधिक रहस्यमयी 'काल अथवा समय' की यात्रा कैसे संभव होती थी।

अभी तो शिव के 'ॐ' के नाद को समझने के लिए तुम्हें शताब्दियां चाहिए, जहां 'आ', 'ऊ', म' के उच्चारण में अपने शरीर के एक-एक अणु की थिरकन को महसूस करोगे, देखोगे कि शरीर कैसे विलुप्त हो रहा है अध्यात्म के भंवर में।

लेकिन शिव के इस विज्ञान को समझने के लिए तुम्हारी बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनों तथा ऊर्जा के प्रकीर्णन की जरूरत नहीं है अपितु कुण्डलिनी शक्ति के रहस्य की आवश्यकता है। मानव की वास्तविक क्षमता का आकलन अभी तुम्हारे लिए बहुत दूर की कौड़ी है।

एक-एक बिंदु से कैसे ऊर्जा प्रवाहित होती है और उसको मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित करके कैसे असाध्य कार्य किए जा सकते हैं ये जानने के लिए तुमको, इतिहासों को सहेजती गंगा के जंगलों में घुसना पड़ेगा।

अध्यात्म अत्यंत दुर्लभ साधना है साधारण मनुष्यों के लिए जबकि मानव मस्तिष्क की क्षमता असीमित है और यह भी एक अकाट्य सत्य कि जो भी हम सोच लेते हैं वो हमारे लिए प्राप्य हो जाती है।

गीता में मानव शरीर को दो भागों में विभक्त किया हुआ है- एक, जिसे हम देखते हैं और दूसरा, अवचेतन जिसे हम महसूस करते हैं। जब हम कोई भी प्रण लेते हैं तो मन का अवचेतन हिस्सा जागृत हो जाता है और वो भौतिक जगत के अणुओं के साथ अपना जोड़ स्थापित करने लगता है जिससे सभी जीवित अथवा निर्जीव आत्माएं अपना सहयोग देने लगती हैं और इसकी परिणति हमारी आत्मसंतुष्टि होती है जिसे सिर्फ हमारे अध्यात्म विज्ञान ने परिभाषित किया था।

लेकिन अब मानव भटक चुका था, पुरातन अध्यात्म की राह से। मानव मस्तिष्क को आसानी से काबू करने के लिए शिक्षित पुरोहित वर्ग ने सुलभ संहिताएं लिखीं। उन्होंने उन मूर्तियों में प्राण बताकर मानव को प्रेरित किया ईश्वर के करीब जाने के लिए। उन्होंने पुराणों, आरण्यक, ब्राह्मण, मंत्रों, विधानों आदि की रचना कर सरल अध्यात्म व मानव संहिता की नींव रखी।

असंख्य प्राकृतिक रहस्यमयी प्रश्नों को भगवान की महिमा व प्रारब्ध निर्धारित बताकर तर्कों पर विराम लगा दिया गया तथा कटाक्ष करने वालों को अधर्मी कहकर बहिष्कृत किया जाने लगा। एक अजीब-सी स्थिति का निर्माण हो गया था चरम विज्ञान के इस देश में।

मानवों का ऐसा भटकाव देखकर कृष्ण बहुत विचलित हुए। 'गीता' वो रहस्यमयी अध्यात्म के शिखर की प्रतिबिम्ब है, जहां आज तक कोई भी ग्रंथ नहीं पहुंच पाया है। उसमें प्रत्येक पदार्थ चाहे वो निर्जीव हो अथवा सजीव, चाहे वो मूर्त हो अथवा अमूर्त, में अणुओं की ऊर्जा और उसको संचालित करने वाले प्राण की सूक्ष्म संज्ञा आत्मा है। अत्यंत अद्भुत व रहस्यमयी शिखर जहां प्राण अपनी धुरी का मोह छोड़ देते हैं और आत्मा इस जीवन चक्र से मुक्त हो जाती है।

विज्ञान का पहला नियम 'पदार्थ न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है सिर्फ स्वरूप बदलता है तीन स्थितियों अर्थात ठोस, द्रव्य और वायु में' लेकिन कृष्ण का शोध इससे भी गहन है जिसमें 'आत्मा न तो उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है सिर्फ शरीर बदलती है'।

उदाहरणत: निर्जीव लोहे में जब तक आत्मा रहती है उसका आकार स्थायित्व लिए रहता है लेकिन जब उसकी आत्मा साथ छोड़ देती है, वो चूर्ण की भांति बिखरने लगता है। अभी तो हम जीवित और निर्जीव वस्तुओं का ही भेद नहीं समझ पाए हैं तो उनका अध्यात्म बहुत कठिन तथा सहस्राब्दियों का प्रयोग है हम जैसे भौतिक मानवों के लिए।

लेकिन इस अध्यात्म को भी मानवों की सत्ता-लालसा ले डूबी। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र ने भारत का विज्ञान मार डाला। सहस्रों सूर्यों ने भारत को शताब्दियों तक अंधकार में डुबो दिया।

कई युगों की खामोशी और फिर लिखा गया इतिहास...


कई युगों की खामोशी के बाद इतिहास फिर से लिखा जाने लगा। जीसस क्राइस्ट, मुहम्मद साहब, महात्मा बुद्ध, महावीर जैन और गुरु नानक अगली पीढ़ी के कुछ ऐसे महात्मा हुए जिनको धार्मिक कट्टरता, धर्मांधता, अंधविश्वास, मानवीय संकीर्णता, राजनीति व पुरोहितीय विधानों का सामना करना पड़ा, परंतु एक ज्योतिर्पुंज की भांति इन्होंने झंझवातों को झेलते हुए मानवता को नई दिशा दी और उसी शिव तथा कृष्ण के अध्यात्म का फिर से प्रसार किया।

ये मायने नहीं रखता कि वे कितने सफल हुए लेकिन उन्होंने असंख्य मानवों को असमय कालग्रस्त और अनैतिक होने से बचाया तथा आध्यात्मिक संहिताओं को मानवता के स्वरूप में ढाला।

बड़ी कठिन और मार्मिक घटनाओं की साक्षी है इन महात्माओं की जीवनी। लेकिन फिर भी अपने दारुण कष्टों को भूलकर हमेशा सबका कल्याण ही करते रहे ये मानव। गीता में अध्यात्म का स्तर बहुत ऊंचा था, जहां पर किसी भी प्रकार के यत्न और विधि द्वारा मानसिक शक्तियों की एकाग्रता का चरम उद्देश्य आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना था। लेकिन इसकी आड़ में कर्मकांडों की बाढ़-सी आ गई थी।

सबसे बुरी स्थिति से अरब जूझ रहा था, वहां की विरल जलवायु में मानव भोगी बन गया था। लाखों की तादाद में मानवों को खरीदा जाता, उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता, उनके परिवारों को तहस-नहस कर दिया जाता, छोटे-छोटे अबोध बच्चों के सामने उनके मां-बाप को बेच दिया जाता, स्त्री बलात्कार और विलास की वस्तु थी, किसी भी बीमारी की दशा में गुलामों के सामने उनके मासूम दुधमुहे बच्चों को गंडासे से काटकर या कुएं में फेंककर बलि दे दी जाती थी। क्लियोपेट्रा जैसी साम्राज्ञी तो अपने होंठों को रंगने के लिए सेविकाओं के होंठों के रक्त का प्रयोग करती थीं।

मानवता के इन कठिन दुर्दिनों में हजरत मोहम्मद ने प्रेम, वात्सल्य और भावनाओं का संचार किया। उन्होंने मानव को फिर से आध्यात्मिक उन्नति पर ले जाने का प्रयत्न किया, जहां प्राकृतिक अवस्था की वकालत थी, जहां भिन्न-भिन्न मंदिरों, देवताओं, कर्मकांडों, व्यवसाय, अंध उपभोग और अमानवता का विरोध था। उन्होंने अपना सारा जीवन मानवता को समर्पित कर दिया।

लेकिन हर सच्ची बात कड़वी ही होती है, इससे पुरोहित व सत्ता वर्ग को अपने व्यवसाय पर संकट नजर आने लगा और वो इनके तथा परिवार की जान के दुश्मन हो गए। अध्यात्म के एक सच्चे साधक ने फिर से शिव की परंपरा को पुनर्जीवित किया था। उसने प्रकृति के विरुद्ध आडंबरों को खारिज कर दिया, उसने संगीत, कला, मानव एकता और प्राकृतिक जीवन को परिभाषित किया।

कालांतर में जिस तरह से शिक्षित मानवों अर्थात पुरोहितों ने सनातन धर्म को अपने कलेवरों से बदला ठीक उसी तरह इस्लाम की खलीफाओं और मौलवियों द्वारा व्याख्याओं ने धर्म के मूल स्वरूप को नष्ट कर दिया। अब इस्लाम का अर्थ सत्ता में बदल चुका था। जितने अनुयायी होते उतनी ही खलीफा की शक्ति बढ़ती, इसके लिए उन्होंने किसी भी सहारे को गलत नहीं माना। अध्यात्म फिर से भोग तरफ मुड़ गया था।

धर्म प्रसार के नाम पर सत्ता प्रसार के लिए भारतीय उपमहाद्वीप से निकला मानव फिर यहां पर लौटा लेकिन अब वो हथियारों के बल पर आया था, एक नवीन और कट्टर संस्कृति को लिए। कैसी विडंबना थी हजारों साल बाद वो अपनी ही पीढ़ियों को रौंदना चाह रहा था।

अगले पन्ने पर फिर हुई आक्रमणों की शुरुआत...


भारत पर आक्रमण हुआ। गांव-शहर तबाह हुए, यहां का भोला मानव मारा जाता रहा। जीवन, अस्मिता और बच्चों को बचाने के लिए असंख्य परिवारों ने धर्म परिवर्तन कर लिए, जो इसमें नाकाम रहे उन्हें काफिर कहकर कत्लेआम कर डाला जाता था।

मूर्ख कट्टर मानवों ने अपने ही वंशजों के गले काटे थे।

लेकिन इस कट्टर आक्रमण का दूसरा पहलू भी था। सदियों से असंगठित भारतीय समाज संगठित होने लगा। हजारों संप्रदायों व धर्मों में बंटा मानव एक हो चला। शैव और वैष्णव संप्रदाय में बंटे एक-दूसरे के धुर विरोधी भी एक हो गए थे। चारों दिशाओं में शंकराचार्य घूम-घूमकर एक संस्कृति की अलख जगा रहे थे।

पश्चिमी देशों की एक और दिक्कत थी, जैसे यूनानी सिंधु का उच्चारण 'इण्डस' और अरबी 'फिंधु या हिन्दू' करते थे। इसी वजह से यहां के निवासियों को एक नया नाम मिला, एक नई भाषा 'हिन्दी' मिली और सकल सिंध से लेकर संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के सभी मानवों के विभिन्न धर्मों का विलय हुआ 'हिन्दू' नाम में, यानी अब एक बिलकुल नया धर्म अस्तित्व में आ चुका था। हालांकि धर्म के जानकार कहते हैं कि हिन्दू नाम बहुत की प्राचीन काल से प्रचलन था। यह इंदू और हिमालय से मिलकर बना है।

सभी संप्रदायों की मूल धारणा, शिव के विज्ञान, विष्णु की सहिष्णुता और सौम्यता, ब्रह्मा की संहिता, इंद्र के प्रकृति प्रेम, बुद्ध के सम्यक मार्ग, चार्वाक के प्रारब्ध निर्धारण, कृष्ण के अध्यात्म और प्रेम, महावीर की अहिंसा, दुर्गा में नारी सम्मान, पृथ्वी में मातृप्रेम, पदार्थों का मानवीकरण तथा उसमें आत्मखोज, योग, ध्यान, तंत्र मंत्र, अघोर साधनाएं इत्यादि 'हिन्दुत्व' की विशालता में समाहित हो गई थीं।

इस्लाम आया जरूर अपनी कट्टरता लिए लेकिन जब उसका सामना अपनी जन्मभूमि से हुआ तो वो भी बदल गया। वो मानव जो खून देखकर खुशियां मनाता था, अहिंसक होने लगा। जीवों को मारकर खाने वाला खुद ही उनके आंसुओं के साथ भीगने लगा।

कृष्ण के 'आत्मखोज' को वो 'खुदा' कहने लगा, शिव के 'नाद' में खो जाने वाले संन्यासियों का नया रूप सूफियों के आत्मविभोर करने वाले संगीत में उभरा। संगीत की स्वर-लहरियों के जरिए वातावरण तथा शरीर के अणुओं का दोलन करते हुए अध्यात्म की चरमता प्राप्त करने की विधा सामने आई।

इसको सरल करने के लिए शिव के एक और रूप गुरुनानक ने सिख पंथ को दुनिया के सामने रखा। अति सरल, संगीतमय, प्रकृति प्रेम, समानता तथा सद्भावपूर्ण जीवन की शक्ति से ओत-प्रोत इस पंथ ने इस्लाम को भी हिन्दुत्व में शामिल कर दिया।

हां, यह एक शोधपूर्ण सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद सभी धर्मों को यदि अरब आक्रमण के मुताबिक देखा जाए तो यहां का प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है और सिंधु नदी के आधार पर पाकिस्तान से हिन्दुओं की गणना शुरू होती है। याद करो धर्मों को जन्म संस्कृतियों ने दिया, संस्कृतियों को सभ्यताओं ने और सभ्यताओं को नदियों ने।

इस उपमहाद्वीप का मानव चाहे जिस भी धर्म का हो, वो एक ही सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है, वो जन्म से लेकर मृत्यु तक एक ही संस्कृति का वाहक होता है।

भारत में मुगलों का शासन था। सम्राट अशोक की तरह एक और महान शासक अकबर आया, जो हिन्दू-मुगल वंश का था। राजपूतों के बीच पला-बढ़ा ये महात्मा शुरू से ही जिज्ञासु था, जो संगीत, कला, ज्योतिष और धर्मों में सदा अन्वेषण करता रहा। इस्लाम को हिन्दुत्व के और करीब लाने के लिए इसने मंदिरों के साथ-साथ मस्जिदों की भी नींव रखी।

विशाल हिन्दुत्व में इस्लाम को भी समाहित करने का यह एक अतुलनीय उदाहरण था। महात्मा अकबर ने इसी क्रम में दीन-ए-इलाही में सार धर्म की अवधारणा प्रस्तुत की, परंतु जीवन के अंतिम दिनों में उनके अंदर वो जोश नहीं बचा था। उनकी मृत्यु के बाद सत्ता पर फिर से पुरोहित हावी होने लगे, एक बार फिर सत्ता को खलीफा के अधीन करने का प्रयास हुआ।

युवा औरंगजेब के रूप में उनको आसान शिकार मिला, हालांकि अपने पूरे जीवन वो कट्टरता लिए दौड़ता रहा, लेकिन प्रौढ़ावस्था में वो सहिष्णु एवं ग्लानि से भरा था। उसके खत्म होते-होते ये हिन्दू मुगल वंश अपनी पहचान खोने लगा था, धर्म के नाम पर अलगाव पैदा करने वालों ने इस महान साम्राज्य को ढहा दिया था।

अगले पन्ने पर अंग्रेजों का कब्जा और कैसे बदला भारत...


पहली बार भारत पर विदेशियों ने कब्जा किया, परंतु ये कब्जा इंसानों का नहीं व्यवसायियों का था। भारत पराधीन हो गया। अब तक भारत की आत्मा को किसी ने नहीं छुआ था लेकिन अब कृषि, जंगल, गांव और शिक्षा भी बंधनों में जकड़ गए थे।

अब तक पारंपरिक शिक्षा तथा संस्कृति पर किसी ने आघात किया था, पर अब मैकाले की शिक्षा पद्धति थी। भारत की वायु से लेकर जल तक ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा हो गए थे। नवीन शिक्षा पद्धति ने विशाल भारतीय उपमहाद्वीपीय संस्कृति को तोड़ने का काम शुरू कर दिया तथा भारतियों को भी स्थूलता, भौतिकता, उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर खींचने को तत्पर थी।

लेकिन भारतीय संस्कृति वो दाता है जिससे जितना भी ज्ञान ले लो, कभी कम नहीं होती। जिसे पश्चिमी यूरोप अपना पुनर्जागरण कहकर दंभ भरता है, वो वास्तव में भारतीय जंगलियों द्वारा बांटा गया ज्ञान है जिसे यहां के सिद्धांतों का परिष्करण कर दुनिया को दिखाया जाता रहा और आगे भी दिखाया जाता रहेगा। इन सब बातों से बेखबर भारत के साधु-फकीर निष्काम निश्छल अध्यात्म की अलख जगा रहे हैं।

भारत में दो तरह के वर्ग का उदय होने लगा। एक वो जो पश्चिमी दुनिया को अपना आदर्श मानते थे और दूसरा जो अपनी संस्कृति का कट्टर समर्थन करते थे। व्यवसायियों द्वारा भारत की आत्मा अर्थात शिक्षा पर चोट करने का दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा। युवा वर्ग की नजर में ये पुरानी संस्कृति के बुजुर्ग लोग गंवार और असभ्य-से हो गए थे। ये पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अब भारत की तकदीर था।

यूरोप को भारत की शिक्षा ने सब कुछ दे दिया और खुद के लिए रखा वो वर्ग, जो अब पश्चिमी मानसिकता का था। वो वर्ग जो अब मोटे कपड़े की जगह पॉलियेस्टर के कपड़े पहनता था। मूर्ख मानव अपना कपास विदेशियों को पहनाकर उनका प्लास्टिक पहने इतरा रहा था। व्यावसायिक कृषि के चलते भारत अकालों और भुखमरी से घिर गया।

मानवता और नैतिकता के लिए काला अध्याय लिख दिया था व्यावसायिक विदेशी वणिकों ने। भारत की आत्मा भले ही पराधीन थी, परंतु मरी नहीं। युवा वर्ग भले ही पश्चिमी शिक्षा का अनुकरण करके अपने को सभ्य समझने लगा था लेकिन आखिर था तो यहीं का। एक बार फिर से यहां के सभी संप्रदाय और धर्म एक होने लगे थे।

युवाओं ने जब अपने ज्ञान की तुलना विदेशी ज्ञान से की तो उन्हें वास्तविकता का पता चला, लाखों संस्कृतियों को जन्म देने वाली इस महान भूमि पर भला गौण और शैशव संस्कृतियां, अपना आधिपत्य कैसे स्थापित कर सकती थीं? पश्चिमी विश्व तो गौण और शिशु संस्कृति थी, जो सिर्फ उपभोक्ता और अतिवादिता की पर्याय थी।

स्वाधीनता की लहर और हिन्दुओं के साथ धोखा...


भारत की पराधीनता अब युवाओं को भी खटकने लगी, पढ़े-लिखे अंग्रेजों की बराबरी का दंभ भरते एक बैरिस्टर युवक के स्वाभिमान को जब अफ्रीका में ठेस लगी तो उसका भारत जाग उठा। उसने अपनी रंगीन कतरनों को उतार फेंका और मोटा खद्दर अपने हाथों से बुनकर पहनने लगा, महलों और चट्टानी इमारतों को छोड़कर पेड़ की छांव तले बने आश्रम को अपना आशियाना बना लिया। वही पुराने ज्ञान और अहिंसा के व्रत को उठाकर उसने विश्व को अपनी दुबली-पतली काया के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया।

भारत आजादी की दहलीज पर था कि हिन्दुत्व एक बार फिर छला गया धर्म के नाम पर। जाते-जाते विदेशी व्यवसायियों के चक्रव्यूह में दो धार्मिक राजनीतिज्ञ फंस गए। सत्ता पाने की लालसा में इन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा कर डाला।

कितनी घृणित थी ये भूख, जो लाखों निर्दोषों को काट रही थी, कत्ल हो रहे थे, अस्मत लूटी जा रही थी, बच्चे बिलख रहे थे, इतिहास छूट रहे थे और सभ्यता बिखर रही थी। सिर्फ दो लोगों के नाम पर अपना-अपने को मार रहा था। लेकिन जो इस आजादी का मुखिया था, वो भूखा-प्यासा नोआखली में दंगों के बीच पड़ा था। एक टूटी हुई भविष्यविहीन आजादी लेकर भारत और पाकिस्तान अलग हो गए, नफरतभरी अंतहीन यात्रा के लिए

आजादी तो मिल गई लेकिन किसी को भी पता नहीं चला कि वास्तविकता क्या थी। झूठी आजादी थी ये, सिर्फ निजाम ही तो बदला था।

पश्चिमी गुलामी का संचार करती शिक्षा हमारा आधार थी। जिस वजह से जो व्यवसायी जहांगीर के समय में भारत आया और सारे भारत में अपना माल बेचता गया वो व्यवसायी आज भी वहीं मौजूद है। उसने लगभग 4 शताब्दियों में लगातार चौगुनी रफ्तार से अपने व्यवसाय व लाभ में वृद्धि की है... एसी, कार, मोबाइल, टीवी, कोक, साबुन, रे‍फ्रिजरेटर, हवाई जहाज, पुल, बांध, न्यूक्लियर रिएक्टर, सड़कें, क्रिकेट, यूनिवर्सिटीज, प्लास्टिक, सिंथेटिक, दवाएं, कम्प्यूटर, इंटरनेट, बिजली, सीमेंट जैसी असंख्य चीजें हमारी जिंदगी का हिस्सा हैं। एक ऐसा जीवन जो चौबीसों घंटे हमारी गुलामी को उजागर करता है, आज हम इन सबके बिना जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते।

क्या इन चीजों के बिना हम जिंदा रह सकते हैं? रोंगटे खड़े हो रहे होंगे जवाब ढूंढने में? पहले ही झटके में आपका जवाब होगा... बेहद दकियानूसी इंसान है ये... ये तो हमारी सभ्यता को पीछे ले जा रहा है... भला बिना बिजली के भी इंसान रह सकता है? बिना ट्रांसपोर्ट के तो जिंदगी थम ही जाएगी...!

दमा, कैंसर, भूख, लूट, बलात्कार, विदेशी भक्ति यही है हिन्दुस्तान...


बहुत सच बात है, लेकिन मैं कुछ जवाब देता हूं बशर्ते आप व्यवसायी मीडिया और झूठे विदेशी आंकड़ों को भूलकर अपने आस-पड़ोस, अपनी पीढ़ियों की जानकारी करें।

आजादी से पहले तक आपके परिवार में किसी को कैंसर था? दमा था? कितनी दूर तक आपके पुरखे बिना हांफे दौड़ लेते थे? मैंने आंकड़े पढे हैं कि आजादी के वक्त जीवन प्रत्याशा लगभग 50 साल थी और आज लगभग 75 साल। सरासर झूठे और भ्रामक तथ्यों से भरा पड़ा है विदेशी व्यवसायियों द्वारा लिखा हुआ इतिहास।

कैसी विडंबना है कि आज का आधार ये पश्चिमी देशों के अनुमानित थोपे हुए आंकड़े हैं, जो अभी सिर्फ 300 साल पहले जागे हैं और हमारी हजारों साल पुराने विज्ञान को अंधविश्वास कह रहे हैं।

अरे सच्चाई को जरा गौर से देखो। तुमने तो 3 शताब्दियों में ही मानवता को खत्म करने की तैयारी कर दी है। कौन-सी जगह छोड़ी तुमने अपने व्यवसाय की संतुष्टि के लिए, जहां अगली पीढ़ी अपनी जिंदगी बचा पाएगी?

हमारे वास्तविक इतिहास में मानव पूरे 100 वर्ष जीता था, इसके लिए 25-25 वर्ष के 4 सोपान या आश्रम होते थे। आज आप सब तरफ नजर उठाकर देख लो। 50 की उम्र का शायद ही कोई इंसान ऐसा बचा है जिसे गठिया, वात, पित्त, ब्लडप्रेशर, हृदयरोग, डायबिटीज, गुर्दे-लिवर के रोग, आंखों के रोग, चश्मा, सुनने की क्षमता, हार्मोनल असंतुलन, बालों के रोग, मानसिक रोग तथा यौन रोग आदि न हों?

कितनी चतुराई से आयुर्वेद की हत्या हो गई और हमें पता भी नहीं चला। यहां का नाड़ी विज्ञान, जिह्वा जांच, स्पर्श चिकित्सा, अंगुली के पोर, आंखों को देखकर, हथेली से शरीर के हिस्सों को छूकर रोग की पहचान करने का विज्ञान कब और कहां विलुप्त हो गया, कोई नहीं जान पाया। मानव अंग प्रत्यारोपण और सबसे महत्वपूर्ण मस्तक प्रत्यारोपण की एकमात्र विधा जो पाश्चात्य चिकित्सा के लिए सपना ही है, ऐसा आयुर्वेद कब 'नीम हकीम, खतरा-ए-जान' के भूमिका में पहुंच गया या व्यवसायियों ने पहुंचा दिया...?

हमारी संस्कृति में वैद्यकी व्यवसाय नहीं बल्कि सेवा थी जिसे बड़े परिश्रम और कड़े शोध से किया जाता था, परंतु आज की संस्कृति में 'डॉक्टरी' सबसे अधिक मुनाफा देने वाला व्यवसाय है।

हजारों सालों से अध्यातन अथर्ववेद का आयुर्वेद एवं मानसिक विज्ञान की साधनाओं के रूप में तंत्र और मंत्र विज्ञान, सामवेद में संगीत विज्ञान का धार्मिककरण करके व्यवसाय को ही पुष्ट किया इन आधुनिक नासमझ मानवों ने।

ये व्यवसाय भी हमें कभी न खलता लेकिन आज जब यह मानवता के विनाश पर ही तुल गया हो तो कहां तक दम साधे देखेंगे? प्रतिरोध तो होगा ही अपनी औलादों के अंजाम को सोचकर...

अरब देशों के खनिज तेल को निकालकर वहां एक खामोश मौत का निर्वात छूट रहा है। उन मूर्खों को नहीं परख कि अंधाधुंध दोहन उस खनिज ऊर्जा का उनके तथा संपूर्ण विश्व की तबाही की पटकथा तैयार कर रहा है। अरे सीमित करो अपनी जमीन को खोखला करना और ऊर्जा का विस्थापन करना।

आर्कटिक की बर्फ को पिघलाते पश्चिमी वैज्ञानिकों, भारतीय उपमहाद्वीप पर तो बहुत बाद में प्रभाव आएगा। पहले उस ऊर्जा के बिगड़ते स्वरूप से तुम्हारा नामोनिशान मिटने जा रहा है। तुम्हारा ही बनाया हुआ परमाणु बम था न जिसने हिरोशिमा व नागासाकी का भविष्य अपंग कर दिया। तुम लोगों का बिका हुआ मीडिया कभी तुमको भोपाल की मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का जिम्मेदार मानता है?

सोचो कि अगर यह तुम्हारे देश में हुआ होता और वो फैक्टरी हम संचालित कर रहे होते तो 50 हजार लोगों की मौतों का जिम्मेदार हमें ठहराकर इराक, लीबिया, वियतनाम और अफगानिस्तान जैसा हमारा भी हाल कर दिया होता?

ये तुम्हारे ही हथियारों के व्यावसायिक एजेंट थे न लादेन, सद्दाम, गद्दाफी, तालिबान आदि किसी समय? जैसे ही ये तुम्हारे विरुद्ध हुए, तुम्हारे मीडिया ने इनकी धज्जियां उड़ा दी और ऐसा प्रचार किया कि सारे संसार के राक्षस अब यही हैं। जिन्हें कभी तुमने रूस के खिलाफ ईजाद किया था। क्या उस समय ये मनुष्य थे, जो तुम्हारा विरोध करते ही शैतान हो गए?

सबसे नवीन, संगीतमय और कलाप्रधान धर्म इस्लाम को दकियानूसी और आतंकवादी बना दिया तुम्हारे एजेंटों और तुम्हारी प्रतिद्वंद्विता ने। इस्लाम की दुर्दशा के जिम्मेदार ये नहीं बल्कि तुम थे जिसने इन मानवों को आत्मघाती बनाकर भोले लोगों को लामबंद करा दिया। आज अरब से लेकर हिन्दुस्तान तक मेरी सभ्यता जल रही है, मेरे परिवार मर रहे हैं।

अंतरिक्ष, पाताल, सागर, ध्रुव, जमीन, वायु, जल, आकाश सबको तबाह कर रहे हो न तुम विशुद्ध व्यावसायिक मानव? कभी सोचा है इसका अंजाम क्या होगा?

सीरिया के एक विस्फोट में मेरा एक चंचल बालक अपने फटे सिर से उगलते खून को नन्हे हाथों से थामता रोता हुआ कह रहा था- 'मैं अल्लाह से तुम्हारी शिकायत करूंगा कि तुमने मुझे मारा'। मां-बाप के मरे शवों के सामने वो अल्लाह को ही बड़ी ताकत मान रहा था और यही बड़बड़ाते हुए वो बच्चा शांत हो जाता है। इस वीभत्स घटना में किसका भगवान बड़ा था- शियाओं का या सुन्नियों का? या फिर इन दोनों को लड़ाकर अपना हित साधने वाले राजनीतिज्ञों का?

इराक में तुम्हें क्या मिला? कौन से रासायनिक हथियार मिले जिनके बारे में तुम्हारा मीडिया चिल्लाता था... सद्दाम को मारकर मेसोपोटामिया की सभ्यता ही खत्म कर दी न अपने तेल की लालसा में। तालिबान को खड़ा किया तुमने रूस के विरुद्ध और आज तुम्हारे तालिबान और तुम्हारी सेना के टकराव में मेरा अफगानिस्तान खत्म हो गया न। मां की गोद में लेटा दूध पीता लाड़ से टुकुर-टुकुर ताकता बच्चा जाने किस ड्रोन से शव बन जाता है...!

जरा ध्यान से सोचो अरे ओ अंध-आकांक्षी मानवों, भारत-पाकिस्तान, इसराइल-फिलिस्तीन, उत्तर व दक्षिण कोरिया, सीरिया, यूक्रेन, ईरान आदि तुम्हारे व्यवसाय और अहं के टकराव का ही नतीजा है न?

अरब से लेकर भारत तक एक ही संस्कृति है और यही वजह है कि अरब में गिरा बम यहां आंसू लाता है। पाकिस्तान के अंदर घुसकर लादेन को मारना, हम भले ही ऊपरी दिखावा करें कि अच्छा किया लेकिन ये हमारा दिल ही जानता है कि वास्तविकता क्या थी। तुमने तो बच्चों को टीका लगाने के नाम पर उसको खोजा था। सरासर विश्वासघात किया था हमारे भोलेपन से। किसी भी तरीके से तुम अपने एजेंट को ढूंढते तो हमें दुख न होता लेकिन तुमने हमारे बच्चों की आड़ ली थी।

आतंकवादी कौन हैं...पढ़ें अगले पन्ने पर...


तुम्हारे ही बेचे हुए हथियारों का इस्तेमाल करते हैं न ये आतंकवादी संगठन?

सच, कितना घिनौना स्वरूप है तुम्हारा... लिट्टे, माओवादी, उग्रवादी, आतंकवादी, चरमपंथी... व्यवसाय की प्रतिपूर्ति में तुमसे हथियार खरीदते हैं, तुमसे लड़ते हैं, कुछ तुमको मारते हैं, कुछ खुद भी मरते हैं लेकिन अमेरिका से लेकर एशिया तक तबाह वो बच्चे और वो परिवार होते हैं, जो प्यारी-सी और सुकूनभरी जिंदगी जीने का सपना संजो रहे थे...

हथियारों का हर संस्करण चाहे रासायनिक हो, जैविक हो, साइबर हो, सैटेलाइट के जरिए हो, परमाणवीय हो, मशीनी मानव हो या 'हार्प' (HAARP) हो- तुम ही ईजाद करते हो, तुम ही इस्तेमाल करते हो और तुम ही दंभ भरते हो कि इनसे मानवता सुरक्षित है... अरे लाखों लोगों की एक झटके में जान लेने वाले ये हथियार कौन-सी मानवता के रक्षक हैं? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों तुम्हारे जैसा कोई हिरोशिमा और नागासाकी का इतिहास दोहराकर फिर भविष्य की जान लेगा।

विश्वयुद्धों में मानवता मरी थी, अमेरिका से लेकर जापान, जर्मनी से लेकर रूस, ब्रिटेन से लेकर फ्रांस तक सब जगह लाशें थीं इंसानों की। लेकिन लाभ हुआ था हथियारों के सौदागरों का।

आज की स्थिति का भविष्य वास्तव में अंधकार में डूबा हुआ है कुछ समझ नहीं आ रहा क्या होगा हमारी औलादों का इस मानसिकता से? स्कूल में छोटे-छोटे बच्चों पर बंदूकें चल रही हैं... बोको हराम अल्लाह के नाम पर निर्दोषों को मार रहा है, बच्चियों को बेच रहा है...माओवादी-नक्सली मरे हुए सैनिकों की लाशों में बम बांध रहे हैं... तालिबान मलाला जैसी मासूम बेटियों के सर पर गोली दाग रहे हैं...सीमाओं पर अपने ही परिवारों के सिर काटे जा रहे हैं...और, अफगानिस्तान में मदरसे में खेलते-चहकते बच्चे ड्रोन का शिकार हो रहे हैं।

उस पर खामोशी से पर्यावरण असंतुलन अगणित मानवों की जान ले रहा है। रोज अस्पतालों में मलेरिया, हैजा, कैंसर, पीलिया, दमा, हृदयाघात, रक्तचाप, फ्लू, एड्स इत्यादि बिना किसी आवाज के जाने कितनी लाशों को दफना रहा है।

सिंधुस्थान के मेरे आकाओं, बहुत कठिन घड़ी है तुम्हारे समक्ष। अपने आपसी वैमनस्य को भूलकर मानवता को बचाने का यत्न शुरू कर दो। मानवता को इस पृथ्वी पर बचाने वाला ये तुम्हारा उपमहाद्वीप एक बार फिर साक्षी बनेगा मानवोत्थान का, क्योंकि बाकी विश्व के सभी राष्ट्र अनंत खतरे की जद में हैं।

विश्व के भौगोलिक स्वरूप की रचना इस प्रकार है कि कोई भी खतरा होने पर ध्रुवों से विनाश की शुरुआत होगी। वहां एक छोटे-से सूक्ष्म स्तर की हलचल संपूर्ण चुम्बकीय कवच में ऊर्जा के प्रवाह को अनियंत्रित कर देगी जिसका तात्कालिक प्रभाव ध्रुवों के समीप राष्ट्रों को उठाना पड़ेगा। बर्फ पिघलने और समुद्र स्तर उठने से महाविनाश का तांडव मचेगा।

व्यवसाय का भस्मासुर उसके अपने नियंताओं को निगल लेगा। इसका दीर्घकालिक प्रभाव बड़े स्तर पर तटीय व द्वीपीय क्षेत्रों पर कहर बरपाएगा। पृथ्वी के हृदय में स्थित चारों ओर से प्रकृति सरंक्षित भारतीय उपमहाद्वीप की बारी सबसे अंत में आएगी और अगर यहां की सबसे सरल जलवायु भी विरल हो जाएगी तो मानवता का अंत निश्चित ही है।

इस उपमहाद्वीप में स्थित प्रत्येक राष्ट्र से मेरी प्रार्थना है कि वे मानव रक्षा में अपने भाग को सुनिश्चित करें। पहचानें अपनी भौगोलिक शक्ति को और संपूर्ण विश्व में व्याप्त पर्यावरण विनाश की प्रक्रिया से अपने वासियों को बचा लें।

हमें अपने शहरों, गावों व मानव बस्तियों के आस पास वृहद स्तर पर 'वन केंद्र' अर्थात 'Forest Points' बनाने होंगे। लगभग 10-50 बीघे की हर तरह की जमीन को 5 हजार की आबादी के लिए सुरक्षित किया जाए।

नैसर्गिक अनुकूलित पौधों तथा वृक्षों को चारों तरफ से ढलवादार क्षेत्रफल में लगाया जाए तथा मध्य में लगभग 1-2 बीघे में शुद्ध वर्षाजल संग्रहीत करने वाला गहरा तालाब हो जिसके ठीक बीचोबीच 20 मीटर क्षेत्र में कुएंनुमा गहराई को जाली से ढंका जाए।

वृक्षों में बरगद, पीपल को भी प्रमुखता दें, क्योंकि पीपल में सर्वाधिक ऑक्सीजन देने की क्षमता व विष को समाहित करने की शक्ति है। यहां तक कि सांप के जहर को उतारने में भी इसकी कोंपलों का इस्तेमाल होता रहा है। पीपल के पत्तों में सर्वाधिक मात्रा में 'वैक्यूल्स' तथा 'स्टोमाटा' मौजूद होते हैं, जो इसको विशिष्ट गुण प्रदान करते हैं।

इसी प्रकार बरगद में भी अभूतपूर्व क्षमता है 'ग्लोबल वार्मिंग' के विरुद्ध। इसके पत्तों की चमकीली वसायुक्त मोटी परत 'इंफ्रारेड रेडिएशन' से जमीन को सुरक्षित रखती है और सूर्य की किरणों के हानिकारक भाग को परावर्तित कर देती है...यही वजह है कि चाहे जितनी गर्मी पड़ रही हो, लेकिन बरगद प्रजाति के वृक्षों के नीचे हमेशा शीतलता मिलेगी अन्य वृक्षों के मुकाबले।

बिना किसी धार्मिक सवालों के इनके वैज्ञानिक महत्व को प्रधानता दी जाए। इन वृक्षों के अलावा इलाकों विशेष में पाए जाने वाले फलदार वृक्षों व पौधों को भी लगाया जाए, क्योंकि किसी भी आपात स्थिति में ये बचे हुए मानवों की भूख को शांत करेंगे।

ये ऐसे केंद्र होंगे जहां हमारी संतानों को खाना, पानी, ऊर्जा तथा छाया मिल सकेगी। वो हर स्थिति में बच सकेंगे, न केवल पारिस्थितिक असंतुलन से होने वाले विनाश से वरन परमाणवीय विश्वयुद्धों से भी।

ये 'Forest Points' हमें जैविक तथा रासायनिक हमलों से भी बचा लेंगे। साथ ही साथ निकट भविष्य में खत्म होने वाले पेट्रोल, गैस, कोयला जैसे ऊर्जा संसाधनों का विकल्प भी बनेंगे।

एक और आग्रह है कि नई सरकार है भारत में, जिस पर सारे विश्व की निगाहें हैं, जीवधारियों के अलावा व्यवसायी भी उत्सुक है अपने भविष्य को लेकर। पता नहीं विकास का क्या पैमाना होगा इस सरकार में? बस इतना ध्यान रखना कि कार्बन डेटिंग के मुताबिक दसियों हजार साल पुरानी सभ्यता का मुकाबला चंद तीन शताब्दियों वाला विकास नहीं कर सकता।

वेदों के ऊपर से धर्म का ठप्पा हटाकर उसका विज्ञान पढ़ना और देखना क्यों ऋग्वेद में इन्द्र लड़ा था पानी को रोकने के खिलाफ, क्यों वो बांध तोड़ देता था? नदियों की स्थितिज ऊर्जा को रोककर बांध में हम बिजली तो प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन इसका नुकसान उस ऊर्जा पर निर्भर प्राणियों को भोगना पड़ता है।

नदियों के किनारों को पक्का करना, उसके अगल-बगल सड़कें बनाना और नदियों को जोड़ना एक आत्मघाती कदम होगा। 'नदियों को साफ करने के लिए एकमात्र और बिना किसी तकनीकी का रास्ता है उनके किनारों पर कम से कम 1 किलोमीटर चौड़े ऊंचे वृक्षबंध बनाना', न कि कांक्रीट की जमीन पर मूक जानवरों को कुचलकर जैव-विविधता की हत्या करके नदियों को साफ रखने का सपना देखना।

ओजोन खत्म करते एयरकंडीशंड हॉलों की मीटिंगें छोड़ अपने जंगलों को समझना, भौतिक ऊर्जा पर निर्भर अपने अस्तित्व को पेड़ों के बीच बहती ठंडी बयार में महसूस करके देखना, नैसर्गिक गंगा के तट पर लगे बरगद की छाया को जरा निहारना जिसने हमें और हमारे प्रकृति विज्ञान को अनंत सहस्राब्दियों से जीवित रखा है।

अपने बच्चों को वो शिक्षा देना, जो प्राकृतिक अन्वेषण का परिणाम हो, शोधपरक हो जिसमें आत्मसंतुष्टि, जीवन कौतूहल, प्रकृति और आजीविका का सम्मेल हो, न कि उस पश्चिमी विश्वासपूरक शिक्षा की ओर बच्चों को भटकाना जिसमें विलासिता, अपव्यय, आत्महंता, अवसाद और स्थूल क्षुद्र जीवन का लक्ष्य हो।

बहुत आसान लक्ष्य है और बड़ा सीधा रास्ता, बस शर्त सिर्फ इतनी है कि इस प्रोजेक्ट में किसी भी प्रकार का राजनीतिक, धार्मिक व व्यावसायिक लाभ न ढूंढा जाए। ईमानदारी से इस भूमि का प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य में जुट जाए और आने वाले 5-6 सालों में बिना किसी राष्ट्रीयता, धर्म, संप्रदाय व लालच के ऐसी जमीन तैयार कर दे, जहां उसकी नस्लें जिंदा रह सकें और इस बाहरी आपस में उलझती, लड़ती और खत्म होती दुनिया को भी शायद बचा सकें।

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