हिन्दू धर्म में मूलत: 33 प्रमुख देवताओं का उल्लेख मिलता है। सभी देवताओं के कार्य और उनका चरित्र भिन्न-भिन्न है। हिन्दू देवताओं में इन्द्र बहुत बदनाम हैं। इन्द्र के किस्से रोचक हैं। इन्द्र के जीवन से मनुष्यों को शिक्षा मिलती है कि भोग से योग की ओर कैसे चलें। आर्यों के प्रारंभिक काल में इन्द्र को आर्यों का रक्षक माना जाता था।
वैसे इन्द्र तो कई हुए लेकिन कहते हैं कि शचीपति इन्द्र एक मन्वन्तर तक स्वर्ग के अधिपति थे। उन्हें इकहत्तर दिव्य युगों तक दिव्य लोकों का साम्राज्य प्राप्त रहा।
उस काल में देवताओं के अधिपति शचीपति इन्द्र थे। गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट थे। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन अधिपति थे। गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट थे। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मय दानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं।
कहां था इन्द्रलोक : जब संपूर्ण धरती बर्फ से ढंकी हुई थी और बस कुछ ही जगहें रहने लायक बची थीं। उसमें से एक था देवलोक जिसे इन्द्रलोक और स्वर्गलोक भी कहते थे। यह लोक हिमालय के उत्तर में था। सभी देवता, गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां हिमालय के उत्तर में ही रहती थीं। उपयुक्त जलवायु होने से युद्ध कर इस क्षेत्र पर सभी अपना अधिकार चाहते थे और यहां रहने के लिए सभी प्रयत्नशील थे। इन्द्र यहां का राजा था और उसने अपने साम्राज्य का विस्तार हिमालय के दक्षिण में भी सभी हिमालयवर्ती राज्य पर जमा रखा था।
इन्द्र का चरित्र और कार्य : इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है, जो दधीचि ऋषि की हड्डियों से बना है। इस वज्र के माध्यम से इन्द्र मेघ और बिजली को अपने तरीके से संचालित कर अपने शत्रुओं पर प्रहार करने की क्षमता रखता था।
इन्द्र किसी भी साधु और राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देता था इसलिए वह कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देता है, तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेता है। साम, दाम, दंड और भेद सभी तरीके से वह अपने सिंहासन को बचाने का प्रयास तो करता ही है, साथ ही वह इस प्रयास के दौरान कभी-कभी ऐसा भी कार्य कर जाता है, जो देवताओं को शोभा नहीं देता जिसके कारण देवताओं को बहुत बदनामी झेलना पड़ी। हालांकि इन्द्र जैसे और भी देवता थे जिनके कृत्यों के कारण उनको स्वर्ग से निकाला दे दिया गया और फिर उन्होंने पाताल लोक में जाकर अपनी एक अलग ही सत्ता कायम कर ली।
आओ जानते हैं देवता इन्द्र द्वारा किए गए ऐसे 8 कार्य जिनके कारण उन्हें छली और पापी तक कहा जाता है। इन कार्यों में जरूरी नहीं कि उनके द्वारा किए गए छल ही हो। उनके द्वारा ऐसे भी कार्य शामिल हैं जिसके कारण सभी देवताओं को शर्मसार होना पड़ा था।
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असुरों से छल : संभवत: यह 9078 ईसा पूर्व की बात है, जब असुरों के राजा बलि ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी थी और इन्द्र सहित सभी देवताओं को वहां से भगा दिया था। उल्लेखनीय है कि वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद था। प्रहलाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबलि था। राजा बलि की सहायता से ही देवराज इन्द्र ने समुद्र मंथन किया था।
समुद्र मंथन के दौरान इन्द्र ने असुरों के साथ हर जगह छल किया। जो 14 रत्न प्राप्त हुए उनका बंटवारा भी छलपूर्ण तरीके से ही संपन्न हुआ। हालांकि असुर यह सोचकर संतुष्ट हो जाते थे कि अपने को इन वस्तुओं से क्या लेना-देना? अपने को तो बस अमृत ही चखकर अजर-अमर हो जाना है। लेकिन जब अंत में अमृत निकला तो वहां भी उनके साथ छल हो गया।
देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत बंटवारे को लेकर जब झगड़ा हो रहा था, तब देवराज इन्द्र के संकेत पर उनका पुत्र जयंत अमृत कुंभ को लेकर भाग गया। तब कुछ दानवों ने उसका पीछा किया। अंत में विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर अमृत बांटने का कार्य किया। इस दौरान विष्णु अपनी मायावी शक्ति से अमृत का कुंभ तब बदल देते थे, जब दानवों को बांटने की बारी आती।
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बनाकर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कंठ में पहुंच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकारकर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। फिर भी अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ अलग-अलग रहकर भी अजर-अमर हो गए। उसके सिर का नाम तो राहु ही है, लेकिन उसके धड़ को केतु कहते हैं।
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बलि से छल : इन्द्र ने राजा बलि के साथ कई बार छल किए। एक बार इन्द्र और सभी देवताओं को बचाने के लिए इन्द्र के निवेदन पर भगवान विष्णु ने वामन बनकर राजा बलि से छलपूर्वक तीन पग भूमि मांग ली थी। दानवीर राजा बलि ने भी दान दे दिया। उसे नहीं मालूम था कि मैं जिसे दान दे रहा हूं वे विष्णु हैं।
अंत में विष्णु ने अपना आकार बढ़ाया और दो पग में ही तीनों लोकों को नाप दिया, तब उन्होंने बलि से कहा कि अब तीसरा पग कहां रखूं? राजा बलि ने कहा कि अब तो भगवन् मेरा सिर ही बचा है। विष्णु ने उसकी दानवीरता और सत्यवादिता के चलते उसके सिर पर पैर रखा और उसे पाताल लोक पहुंचा दिया और वरदान दिया कि तू भी देवताओं की तरह अजर-अमर रहेगा और आज से तू हमेशा के लिए पाताल लोक का राजा बना रहेगा।
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अहिल्या के साथ छल : देवी अहिल्या की कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकांड में मिलता है। अहिल्या अत्यंत ही सुंदर, सुशील और पतिव्रता नारी थीं। उनका विवाह ऋषि गौतम से हुआ था। दोनों ही वन में रहकर तपस्या और ध्यान करते थे। ऋषि गौतम ही न्यायसूत्र के रचयिता हैं। शास्त्रों के अनुसार शचिपति इन्द्र ने गौतम की पत्नी अहिल्या के साथ छल से सहवास किया था।
अहिल्या की सुंदरता के कारण सभी ऋषि-मुनि, देव और असुर उन पर मोहित थे। देवताओं के राजा इन्द्र तो कुछ ज्यादा ही मोहित हो चले थे। इन्द्र के मन में अहिल्या को पाने का लोभ हो आया। बस फिर क्या था। एक दिन ऋषि के आश्रम के बाहर देवराज इन्द्र रात्रि के समय मुर्गा बनकर बांग देने लगे। गौतम मुनि को लगा कि सुबह हो गई है। मुनि उसी समय उठकर प्रात: स्नान के लिए आश्रम से निकल गए। इन्द्र ने मौका देखकर गौतम मुनि का वेश धारण कर लिया और देवी अहिल्या के पास आ गया।
इधर, जब गौतम मुनि को अनुभव हुआ कि अभी रात्रि शेष है और सुबह होने में समय है, तब वे वापस आश्रम की तरफ लौट चले। मुनि जब आश्रम के पास पहुंचे तब इन्द्र उनके आश्रम से बाहर निकल रहा थे। इन्होंने इन्द्र को पहचान लिया। इन्द्र द्वारा किए गए इस कुकृत्य को जानकर मुनि क्रोधित हो उठे और इन्द्र तथा देवी अहिल्या को शाप दे दिया। देवी अहिल्या द्वारा बार-बार क्षमा-याचना करने और यह कहने पर कि 'इसमें मेरा कोई दोष नहीं है', पर गौतम मुनि ने कहा कि तुम शिला बनकर यहां निवास करोगी। त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु राम के रूप में अवतार लेंगे, तब उनके चरण रज से तुम्हारा उद्धार होगा।
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कर्ण के साथ छल : भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदाइशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।
तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं?
विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है, तो मुझे आशा ही नहीं विश्वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही। फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो में खाली हाथ चला जाता हूं?
तब ब्राह्मण के भेष में इन्द्र ने और भी विनम्रतापूर्वक कहा- नहीं-नहीं राजन! आपके प्राण की कामना हम नहीं करते। बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए, तो हमें आत्मशांति मिले। पहले आप प्रण कर लें तो ही मैं आपसे दान मांगू?
कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए।
तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।
इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए इसलिए कि कहीं उनका राज खुलने के बाद कर्ण बदल न जाए। कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।'
तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है?
तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी।
इन्द्र क्या करते, उन्होंने यह मंजूर कर लिया। तब वे फिर से कर्ण के पास गए। लेकिन इस बार ब्राह्मण के वेश में नहीं। कर्ण ने उन्हें आता देखकर कहा- देवराज आदेश कीजिए और क्या चाहिए?
इन्द्र ने झेंपते हुए कहा, हे दानवीर कर्ण, अब मैं याचक नहीं हूं बल्कि आपको कुछ देना चाहता हूं। कवच-कुंडल को छोड़कर मांग लीजिए, आपको जो कुछ भी मांगना हो।
कर्ण ने कहा- देवराज, मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नहीं मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए। कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं।
तब इन्द्र ने विनम्रतापूर्वक कहा- महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा अन्यथा मेरा रथ और मैं यहां से नहीं जा सकता हूं। आप कुछ मांगेंगे तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। आप जो भी मांगेंगे, मैं देने को तैयार हूं।
कर्ण ने कहा- देवराज, आप कितना ही प्रयत्न कीजिए लेकिन मैं सिर्फ दान देना जानता हूं, लेना नहीं। मैंने जीवन में कभी कोई दान नहीं लिया।
तब लाचार इन्द्र ने कहा- मैं यह वज्ररूपी शक्ति आपको बदले में देकर जा रहा हूं। तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।
कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वह वज्र शक्ति वहां रखकर तुरंत भाग लिए। कर्ण के आवाज देने पर भी वे रुके नहीं। बाद में कर्ण को उस वज्र शक्ति को अपने पास मजबूरन रखना पड़ा। लेकिन जैसे ही दुर्योधन को मालूम पड़ा कि कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए हैं, तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए। उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से जाता लगने लगा। लेकिन जब उसने सुना कि उसके बदले वज्र शक्ति मिल गई है तो फिर से उसकी जान में जान आई।
अब इसे भी कर्ण की गलती नहीं मान सकते। यह उसकी मजबूरी थी। लेकिन उसने यहां गलती यह की कि वह इन्द्र से कुछ मांग ही लेता। नहीं मांगने की गलती तो गलती ही है। अरे, वज्र शक्ति को तीन बार प्रयोग करने की इच्छा ही व्यक्त कर देता।
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विश्वामित्र के साथ छल : सप्तर्षियों में से एक विश्वामित्र रामायण काल के ऋषि हैं। उनके काल में ही ऋषि वशिष्ठ थे और दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी। ऋषि वशिष्ठ को देवताओं का साथ था। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे।
विश्वामित्र ऋषि बनने से पहले एक प्रतापी राजा थे। उनके मन में ऋषि बनकर ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की इच्छा हुई। इस इच्छा के चलते वे एक जगह पर तपस्यारत हो गए। उनकी तपस्या से घबराकर इन्द्र ने तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा मेनका को भेजा।
मेनका ने कई तरह के उपक्रम करने के बाद विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उनके मन में काम उत्पन्न कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गए। जब इन्हें होश आया तो इनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ। ये पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गए। सिद्ध होने के बाद काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित कर दिया था, जब त्रिशंकु ने उनके समक्ष सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की थी।
इक्क्षवाकु वंश के राजा त्रिशंकु एक बार सशरीर ही स्वर्ग जाने की इच्छा लेकर अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ के पास गए लेकिन वशिष्ठ के मना करने पर वे उनको भला-बुरा कहने लगे। वशिष्ठजी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चांडाल हो जाने का शाप दे दिया। तब त्रिशंकु विश्वामित्र के पास गए। विश्वामित्र ने कहा कि मेरी शरण में आए व्यक्ति की मैं अवश्य ही मदद करता हूं। तब विश्वामित्र उन्हें स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ की तैयारी करने लगे।
यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं का नाम ले-लेकर उनसे अपने यज्ञ भाग को ग्रहण करने के लिए आह्वान किया किंतु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूं। इतना कहकर विश्वामित्र ने जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुए स्वर्ग जा पहुंचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिए तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गए।
तब विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नए तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मंडल बना दिए। इसके बाद उन्होंने नए इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय-विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिए लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे। इन्द्र की बात सुनकर विश्वामित्रजी बोले कि ठीक है और यह स्वर्ग मंडल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मंडल में अमर होकर राज्य करेगा। इस मंडल का कोई इन्द्र नहीं होगा। इससे संतुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने-अपने स्थानों को वापस चले गए।
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मार्कंडेय ऋषि के साथ नहीं कर पाया छल : इन्द्र-मार्कंडेय ऋषि संवाद : मार्कंडेय ऋषि की तपस्या से घबराकर इन्द्र ने उर्वशी को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। कहते हैं कि इन्द्र का शासनकाल 72 चैकड़ी (चतुर्युगी) युग का होता है और वह तब तक अपने पद की रक्षा के लिए कुछ भी करता है।
इसी उद्देश्य से इन्द्र ने मार्कंडेय ऋषि के पास एक उर्वशी स्वर्ग से भेजी गई। उर्वशी ने अपनी सिद्धि शक्ति से सुहावना मौसम बनाया तथा खूब नृत्य और गान किया और अंत में निर्वस्त्र हो गई। तब मार्कंडेय ऋषि ने कहा कि हे देवी! आप यहां किसलिए आई?
इस पर उर्वशी ने कहा कि हे ऋषि। आप जीत गए मैं हार गई। आप टस से मस नहीं हुए। आप सचमुच ब्रह्मज्ञानी हैं। लेकिन यदि में आपसे हारकर स्वर्ग गई तो मेरा मजाक उड़ाया जाएगा। इन्द्र की उलाहना का सामना करना होगा। उर्वशी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी मैं ही हूं।
इस पर मार्कंडेय ऋषि ने कहा कि जब इन्द्र मरेगा तब क्या करेगी? उर्वशी बोली मैं 14 इन्द्र तक बनी रहूंगी। मेरे सामने 14 इन्द्र अपनी-अपनी इन्द्र पदवी भोगकर मर जाएंगे। मेरी आयु स्वर्ग की पटरानी के रूप में है। इसी तरह एक ब्रह्मा के दिन (एक कल्प) की आयु एक इन्द्र की पटरानी शचि की है।
अंत में इस संवाद के बीच ही फिर इन्द्र आया तथा कहने लगा कि हे ऋषि, आप जीत गए, हम हार गए। चलो आप अब इन्द्र के सिंहासन पर विराजमान होओ। इस पर मार्कंडेय ऋषि बोले- रे इन्द्र, क्या कह रहा है? इन्द्र का राज मेरे किस काम का। मैं तो ब्रह्मज्ञान की साधना कर रहा हूं। वहां पर तेरे जैसे लाखों इन्द्र हैं। तू भी अनन्य मन से (नीचे की साधना- ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा देवी-देवताओं का त्याग करने को अनन्य मन कहते हैं) ब्रह्म की साधना कर ले। ब्रह्मलोक में साधक कल्पों तक मुक्त हो जाता है।
इस पर इन्द्र ने कहा कि ऋषिजी, फिर कभी देखेंगे। अभी तो मौज करने दो। यदि आप मेरे सिंहासन पर नहीं बैठना चाहते तो ठीक है यह अच्छी बात है। आप साधना करते रहें। अब यह तो कम से कम स्पष्ट हो गया कि आप इन्द्र पद के लिए साधना नहीं कर रहे हैं तो मैं निश्चिंत हूं।
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कृष्ण के साथ भी किया था युद्ध : भगवान कृष्ण के पहले 'इन्द्रोत्सव' नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार होता था। भगवान कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होलिका का आयोजन करना शुरू किया।
श्रीकृष्ण का मानना था कि हमारे आस-पास जो भी चीजें हैं उनसे हम बहुत ही प्रेम करते हैं, जैसे गायें, पेड़, गोवर्धन पर्वत (तब गोवर्धन पर्वत सालभर हरी घास, फल-फूल एवं शीतल जल को प्रवाहित करता था)।
श्रीकृष्ण के शब्दों में 'ये सब हमारी जिंदगी हैं। यही लोग, यही पेड़, यही जानवर, यही पर्वत तो हैं, जो हमेशा हमारे साथ हैं और हमारा पालन-पोषण करते हैं। इन्हीं की वजह से हमारी जिंदगी है। ऐसे में हम किसी ऐसे देवता की पूजा क्यों करें, जो हमें भय दिखाता है। मुझे किसी देवता का डर नहीं है। अगर हमें चढ़ावे और पूजा का आयोजन करना ही है तो अब हम गोपोत्सव मनाएंगे, इन्द्रोत्सव नहीं।'
इन्द्र को आया तब क्रोध : श्रीकृष्ण के निवेदन पर स्वर्ग के सभी देवी और देवताओं की पूजा बंद हो गई। धूमधाम से गोवर्धन पूजा शुरू हो गई। जब इन्द्र को इस बारे में पता चला तो उन्होंने प्रलयकालीन बादलों को आदेश दिया कि ऐसी वर्षा करो कि सारे ब्रजवासी डूब जाएं और मेरे पास क्षमा मांगने पर विवश हो जाएं। जब वर्षा नहीं थमी और ब्रजवासी कराहने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर उसके नीचे ब्रजवासियों को बुला लिया। गोवर्धन पर्वत के नीचे आने पर ब्रजवासियों पर वर्षा और गर्जन का कोई असर नहीं हो रहा। इससे इन्द्र का अभिमान चूर हो गया। बाद में श्रीकृष्ण का इन्द्र से युद्ध भी हुआ और इन्द्र हार गए।
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बाल हनुमान की तोड़ दी थी ठुड्डी : एक बार रामदूत हनुमान अपने बालपन में सूर्य को आकाशफल समझकर खाने के लिए दौड़े तो रास्ते में उनको रोकने के लिए वरुणदेव और अग्निदेव ने उनको सूर्य के समीप जाने से रोका लेकिन हनुमानजी उनको परास्त कर आगे बढ़ गए। तब एक-एक करके सभी देवता उन्हें रोकने के लिए उपस्थित हुए लेकिन वे उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। इस दौरान राहु ने भी हनुमानजी को रोकने का भरपूर प्रयास किया, क्योंकि उस दिन अमावस्या थी और राहु सूर्य को ग्रसने वाला था लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी। अंत में उन्होंने सूर्य को निगल ही लिया।
राहु दौड़ता हुआ इन्द्र के पास गया और उनसे कहा, 'देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शांत करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिए थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़कर निगल गया।'
राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गए और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिए पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर अपने व्रज से प्रहार कर दिया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बाईं ठुड्डी टूट गई। हनुमानजी की यह दशा देखकर पवनदेव को क्रोध आ गया और उन्होंने संसार की वायु गति रोक दी। इससे संसार के सभी प्राणी सांस न ले सके और एक-एक कर सभी मरने लगे।
तब ब्रह्मा ने मूर्छित हनुमान को गोद में लिए उदास बैठे पवनदेव को समझाया और हनुमानजी को पुन: होश में लाए। वायुदेव ने फिर से गति शुरू कर दी। ब्रह्माजी ने कहा कि आज के बाद कोई भी अस्त्र या शस्त्र इसके अंग को हानि नहीं पहुंचा सकेगा।
सूर्यदेव ने कहा कि वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र मर्मज्ञ होने का भी आशीर्वाद दिया। वरुण ने कहा कि मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा। यमदेव ने अवध्य और निरोग रहने का आशीर्वाद दिया। यक्षराज कुबेर, विश्वकर्मा आदि देवों ने भी अमोघ वरदान दिए।
तब इन्द्र ने क्षमा मांगते हुए कहा कि इसका शरीर वज्र से भी कठोर होगा। इन्द्र द्वारा उनकी ठुड्डी अर्थात हनु टूटने के कारण उनका नाम 'हनुमान' और वज्र के समान कठोर शरीर हो जाने के कारण 'वज्रंगबली' हो गया।