कम्प्यूटर में माय पिक्चर्स का स्लाइड शो खोले बैठी हूं। बीच-बीच में मल्टी मीडिया भी चला लेती हूं। सब बहुत अच्छा लग रहा है। पिछली यात्रा की एक-एक स्मृति जीवंत हो रही है। मन का उत्साह फूट-फूट पड़ता है। मुझे केरल जाना है, तमिलनाडू, दिल्ली जाना है, राजधानी दिल्ली से फ्लाइट है। नेट पर एक-एक शहर का टेम्परेचर देखती हूं। पैकेज के अनुसार होटलों के नाम पढ़ती हूं। दर्शनीय स्थलों का विवरण समझती हूं। घर की धारावाहिक उबाऊ दिनचर्या से छुटकारे तथा घूमने की कल्पना और एडवेंचर ने चिंतन को थोड़ा स्वप्निल बना दिया है।
शुक्रवार शाम 4 बजे चली गाड़ी अगली सुबह दिल्ली पहुंची। वहां से साढ़े 8 की फ्लाइट है, जिसे एक बजे कोचीन पहुंचना है। यानी कोई साढ़े चार घंटे लम्बा सफर। बादलों की इतनी मोटी परतें। हवाई जहाज में बैठकर ही पता चलता है, कि उल्टे-सीधे बादल एक समान ही होते हैं। बर्फ के पहाड़ों से सफेद, धुंए से स्लेटी और काले।
जब अमृतसर में घर के टैरेस से नीले-स्लेटी की बजाय लाल जहाज दिखाई देने लगे, तो अनुमान था, कि डोमेस्टिक फ्लाइट के इंटरनेशनल होते ही निजी कंपनियों के जहाज आ रहे होंगे- किंगफिशर, जेट एयरवेज वगैरह, पर हवाई अड्डे पर तो लाल रंग का ही आधिपत्य दिखाई दिया। जगह-जगह खड़े लाल रंग के जहाज और लाल सीढ़ियां।
कोचीन की गर्मी ने जैसे ही ऊपर के कोट, स्वैटर उतरवाए, तो सामान के नग बढ़ने लगे। आधा घंटा चैक-आउट में लग ही गया। दस-एक मिनट बाद बेल्ट चली। सामान उतारकर, ट्रॉली में रखा। निकलते ही ट्रैवल एजेंट, नाम की तख्ती लिए इंतजार करता मिल गया। होटल 'सी-लार्ड' हवाई अड्डे से तीस किलो मीटर दूर था- यानी कुल मिलाकर उत्तर भारत से दक्षिण भारत पहुंचने का कोई चौबीस घंटे लम्बा सफर। अगर सीधी फ्लाइट होती, तो शायद 6-7 घंटे ही लगते। ट्रेवल एजेंट ने एक टैक्सी वाले से कुछ विमर्श किया और हम उसमें आ बैठे। होटल तक पहुंचने में ज्यादा समय ही लगा होगा। होटल के रिसेप्शन पर 6 देशों का समय बता रही घड़ियां लगी थी। होटल का कमरा इतना खूबसूरत और स्वच्छ-सुगन्धित, कि उसे देखते ही थकान दूर होने लगी। आश्चर्य कि जनवरी में भी यहां ए.सी. चल रहे थे। अरब महासागर की महारानी कोचीन के बैक वाटरज के सामने ही होटल- 'सी-लार्ड' था। मरीन ड्राइव की भीड़ भरी सड़क थी। थोड़ा आराम करने के बाद शाम को हम मरीन ड्राइव के समुद्री किनारे पहुंचे, तो नौकाएं आ-जा रही थी। हम भी एक नौका में बैठ गए। इस यात्रा का यह प्रथम नौका विहार था। शाम धुंधला चुकी थी, ठंडी और तेज हवाएं चल रही थी। बन्दरगाह के इस एक घण्टे के नौका बिहार में हमने अनेक जहाज देखे, रिफाइनरी, शिप यार्ड, जहाज फैक्टरी, ठाठें मार रहा समुद्र देखा, पानी में फैले हुए जाल और बाहर बिकती मछलियां देखी। पंजाब की जानलेवा सर्दी बहुत पीछे छूट चुकी थी। गर्मियों के हल्के फुल्के कपड़ों में समुद्री हवाएं काफी सुहानी लग रही थी।
अगले दिन रविवार हम सबसे पहले डच पैलेस देखने गए, जो हमारे होटल से कोई आठ किलोमीटर दूर था। 1447 से लेकर कोई अठारवीं शताब्दी तक के वर्मा शासकों की प्रतिमाएं और हथियार यहां देखने को मिले। यहां से पीछे की सड़क ज्युइश पैलेस को जाती थी। ध्यान, गाड़ी के ऊपर बंधे सामान में भी बार-बार अटक रहा था, पर विश्वास, मोबाइल और पास में पड़ी टिकटों का सहारा था। सारा बाजार तरह-तरह के सामान की दुकानों से सजा था। जिसकी तरफ विदेशी यात्री आकर्षित भी हो रहे थे। यहां हमें एक बहुत बड़ी दुकान ऐसी भी दिखाई दी, जिसमें इस प्रदेश की सौगातें- काली मिर्च, इलायची, तरह- तरह के मसाले और दवाइयां ही नहीं, पानी के जहाज, मछली पकड़ने के जाल वगैरह भी पड़े थे। ज्यूइश चर्च में बच्चे को पेट से बांधे अंग्रेज युवती बड़ी भली लग रही थी। मुड़-मुड़ कर देखने से खुद को रोक पाना मुश्किल लग रहा था।
कोई डेढ़ बजे हमारा पांच घण्टे का मुनार का लम्बा पहाड़ी सफर शुरू हुआ। हर तरफ टाटा के चाय बागान, गहरी खाइयां, मारथन रेस की तरह दौड़ रहे चोटियों पर खड़े पहाड़ी रबड़ व नारियल के पेड़ थे और जगह-जगह चिमनियों से उठ रहा धुंआ था। ड्राइवर का प्रयास यही था, कि रात होने से पहले गंतव्य तक पहुंच जाएं, अन्यथा रात होते ही यहां के घने जंगलों से हाथी निकल कर नुकसान पहुंचा सकते हैं। होटल आबादी से बहुत दूर था। डिनर के बाद जैसे ही होटल से बाहर निकले, उनका एक कर्मचारी हमारे साथ हो लिया- कहीं जाइएगा नहीं, रात को यहां हाथी आते हैं। और जब तक हम अंदर नहीं आ गए, वह हमारे साथ ही रहा। इस लॉस पाम होटल की विशेषता इसकी इंटीरियर सजावट थी। छत पर पार्क था जिसमें रूफ टॉप रेस्टोरेंट और झूला था।
बीस किलोमीटर पर मटुपट्टी डैम था। यहां लोग हाथी की सवारी भी करते हैं। एक नवविवाहित जोड़ा हाथी पर बैठा था और महावत हाथी को लेकर चल रहा था, पर लग नहीं रहा था कि उन्हें कोई आनन्द आ रहा है। चेहरे पर स्पष्ट था कि वे मात्र एडवेंचर के लिए ही बैठे हैं। ईको पाइंट पर बच्चे और बड़े पूरे जोर से चिल्ला रहे थे, लेकिन प्रतिध्वनियां उतनी तीखी नहीं थी। कुंदाला झील में फिर बोटिंग की। छोटी सी नौका, झील में दूर दूर तक जा रही थी।
अन्नाईमुड़ी पीक की ओर हम सरकारी बस से पहुंचे। आगे की आठ किलोमीटर की चढ़ाई स्वयं चढ़नी थी, उसके बाद वर्जित क्षेत्र था। कहा गया कि आगे खूंखार जंगली जानवर हैं। चढ़ाई चढ़ते समय कोई मकसद लग रहा था, लेकिन उतराई पर मन एकदम शांत था। मानों कोई रिटायर्ड व्यक्ति शांत मन से जीवन संध्या के धुंधलके में स्थिर मन कदम-कदम चल रहा हो।
दर्शनीय स्थलों को देखते-देखते अगले दिन हम थैकरे पहुंचे। होटल 'सिल्वर क्रैस्ट' पेरियार की वाइल्ड लाइफ सैंचुरी से, मात्र तीन-चार किलोमीटर दूर और समुद्र तट से 2800 फुट ऊॅंचा था। यहां का मुख्य आकर्षण वाइल्ड लाईफ ही था। झील पर पहुंचते ही, लहरों के मूक-आमंत्रण आकर्षित करने लगते हैं - 'तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों में निमंत्रण।' नौका नहीं, यहां नौकाएं चल रही थी और दूर जंगलों में हर यात्री की आंखें अटकी पड़ी थी। कुछ खास तो नहीं, पर कहीं कहीं कुछ हाथी, जंगली सूअर और तरह तरह के हिरण अवश्य देखने को मिले।
अलापूज्हा के शानदार होटल 'आरकेडिया रीजेंसी' के आगे गाड़ी खड़ी हुई। उन्हें हमारी प्रतीक्षा थी। जैसे ही नाम एन्टर हुआ, दो बैरे सामान उठाने आए। वेलकम ड्रिंक दिया गया। बड़ी चमचमाती लॉबी थी। मेज पर पड़ी इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाईम्स बरबस आकर्षित कर रही थी। होटल शहर के अंदर स्थित था। छत पर स्विमिंग पूल था। अलापूज्हा के बैक वाटरज में हाउस बोट्स की भीड़ थी। गहरे हरे रंग का पानी और उसमें उगे घने पौधे। खूब सजी-धजी नौकाएं/ शिकारे, रंगीन फर्श, रंगीन छत, रंगीन पर्दे, कायदे की खिड़कियां। प्रत्येक नौका में मात्रा एक जोड़ा ही था। इस पूरी दक्षिण यात्रा में हमें हनीमून के जोड़े बहुत कम दिखे। छड़ी की टेक लिए बतियाती, खिलखिलाती, खूबसूरत, चुस्त और फिगरेटिव, साथी के साथ धीरे-धीरे मुस्काती स्त्रियां। विदेशी स्त्रियां हाथ में नोट-बुक लिए सर्वत्र कुछ न कुछ लिखती ही दिखाई दी। एक जगह तो मैंने पूछ ही लिया कि कोई प्रोजेक्ट है या वैसे ही...? उसका उत्तर था- स्मृतियों की सुरक्षा और उनका क्रम बनाए रखने के लिए। बच्चों के साथ युवा विदेशी जोड़े भी कहीं-कहीं दिख रहे थे। केरल स्टेट में सब लोग दुबले पतले और छरहरे थे। मानों यहां के लोगों को यह दैवी वरदान मिला हो, पर चेहरे पर भी वह तेज कम ही देखने को मिला, जिससे मोटे लोग जगमगाते रहते हैं। एक स्थल पर शिकारा किनारे से लगा। मांझी हमें घरनुमा दुकान में ले गया। वहां नारियल या ठंडी कोक भी उपलब्ध थी। ड्राइवर ने बताया कि अलापूज्हा का अर्थ ही बैक वाटरज है।
पेट्रोल पम्प पर युवतियों को पेट्रोल भरते देखना बड़ा अच्छा लगा, क्योंकि पंजाब में अभी यह चलन नहीं है। अलपूज्हा के होटल में सुनहरी किनारी की क्रीम साड़ी, लाल ब्लाउज पहने शालीन वेटर युवती को देख यही ध्यान आया, कि इसकी अगली मंजिल एयर होस्टेस बनना ही होगी। बाजारों में कहीं भीड़ नहीं थी, लेकिन ऐसे में भी केमिस्ट या ऐसी ही दूसरी दुकानों पर सिर्फ महिलाओं को देखना सुखद लगा।
केबल टी.वी. ,ए.सी. ,आयुर्वेदिक मसाज, चौबीस घंटे की कॉफी शॉप, चौबीस घंटे की रूम सर्विस, खुले लॉन की सर्विस, आउटडोर स्विमिंग पूल, चैस, कार्ड्स, कैरम जैसी इनडोर गेम्स की सुविधा, लॉकर सुविधा, चिकित्सा सुविधा, ड्राइवरों के लिए डोरमेंट्री, उनके नाश्ते और रात के खाने का इंतजाम- लगभग हर होटल में था। बेलों-फूलों से खिले उपवन, उजली चमचमाती शानदार लॉबी, जायकेदार वेलकम ड्रिंक हर बार नए सिरे से आकर्षित कर रहे थे। सब कुछ अत्याधुनिक, आकर्षक और आरामदेह था।
हर दुकान, होटल, बैंक आदि का बोर्ड मलयालम में ही था। आश्चर्य, कि देश की इस स्टेट में राष्ट्र भाषा का नाम तक नहीं। जरा सी बात के लिए कभी हिन्दी, कभी अंग्रेजी का आश्रय लेना हमारी मजबूरी थी। हवाई अड्डे पर अगर राष्ट्र भाषा में कुछ लिखा था, तो उसमें वर्तनी की ढेरों अशुद्धियां थी। यहां तक कि 'कन्याकुमारी' यहां 'कन्याकुमारि' हो गया था।यहां के विशाल परिसरों वाले मंदिर अपनी तरह के ही थे। हेरिटेज की दृष्टि से उनका महत्व ज्यादा लग रहा था। पुरुषों के लिए मंदिर में धोती पहन कर जाना अनिवार्य था, और कहीं कहीं स्त्रियों के लिए भी यह नियम था। सब पवित्र, शुभ, लोकोत्तर था। तेल चढ़ाने की प्रथा भी देखी। शायद तेल के कारण ही बहुत कुछ चिपचिपाता और धुंआता सा लग रहा था।
मोबाइल पर एयरटेल का संदेश आने पर कि- तमिलनाडू में आपका स्वागत है, पता चला कि हम एक स्टेट की सीमा पार कर चुके हैं। अब हम कन्याकुमारी में थे। नेट पर समुद्र के बीच खड़ा विवेकानंद स्मारक, कन्याकुमारी के श्रृंगार होटल की छत से दिखाई दे रहा विवेकानंद स्मारक, तमिल कवि थिरूवेलूवर की समृद्धि और स्नेह का प्रतिनिधित्व कर रहा 133 फुट ऊॅंचा भव्य स्मारक- आमंत्राण पर आमंत्रण दे रहे थे। नेशनल हाईवे पर खड़ा श्रृंगार होटल समुद्र तट के पास ही था। शाम को ही हम वहां आ जुटे। सब जगमगा रहा था। फोटो लेने का सोच ही रही थी, कि सारी लाइट्स बुझ गई। अगली सुबह साढ़े सात ही जाकर हम लाईन में लग गए। सात पैंतालीस पर टिकटों का वितरण शुरू हुआ।
इतनी लम्बी लाइन और फिर फेरी (नौका) की भीड़। यहां अधिकांश स्थानीय लोग ही थे। औरतें बिना फॉल की गहरे चुभते रंगों की साड़ियां पहनें थी और पुरुष लगभग धोती अंगोछा लिए थे। फेरी में बैठते ही लोग लगातार कुछ गाने लगे थे। क्या गा रहे थे, यह तो स्पष्ट नहीं, पर जैसे उत्तर भारत में वैष्णो देवी की यात्रा के समय जय जयकार करते जाते हैं, वैसा ही कुछ लग रहा था। हम सागर के उस पाइंट पर पहुंच चुके थे, जहां तीन समुद्र मिलते हैं- अरब महासागर, बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर। त्रिवेणी में लोग स्नान कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल 1970 में बनाकर इस महान संत और सुधारक को समर्पित कर दिया गया। अब पुम्पुहर शिपिंग कॉर्पोरेशन व्दारा स्मारक के लिए, फेरी सेवा आयोजित थी। सागर किनारे से जरा सा दूर, दो विशालकाय चट्टानों पर स्मारक बने थे। थिरूवेलूवर ने थिरूकुरल नामक धार्मिक पुस्तक लिखी थी, जिसके 133 अध्यायों में 1330 कविताएं हैं, और पास ही विवेकानंद स्मारक। यहीं पर देवी कन्याकुमारी का मंदिर था। खचाखच भरा हुआ बाजार और शंकराचार्य बगीचा मंडप था।
कोवलम तो शुद्ध यात्रा स्थल ही था। होटल 'समुद्रा' मीलों फैला लग रहा था। समुद्र का एक किनारा होटल के अंदर था। बड़े बड़े पार्क, सजे धुले-पुंछे पेड, पौधे, पत्थर, चट्टानें थी। बीच पर उतरने की खूबसूरत सीढ़ियां थी। ओपन एअर डिनर की व्यवस्था थी। छोटी बच्चियों के कत्थक थे। शरीर को तरोताजा करने वाले आयुर्वेदिक मसाज केन्द्र थे। लगभग सौ कमरों के इस होटल में मुख्यतः ऐसे अंग्रेज यात्री थे, जिन्हें हमारी पांच हजार वर्ष पुरानी आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली से शरीर, मन और आत्मा तक को शुद्ध और स्वस्थ करने के चमत्कार देखने थे। इन उपचार विधियों में शिरोवस्थी, अभियानम्, धारा, उदराथानम् आदि कई प्रकार थे। दूसरे समुद्री किनारों का चक्कर भी लगाया, पर वहां की भीड़-भाड़ से अपने होटल का किनारा ही अच्छा लगा।
वापसी का सफर लगभग शुरू हो गया था। त्रिवेंद्रम से दिल्ली की फ्लाइट लगभग चार घंटे की थी। सुना था, कि राजधानी दिल्ली में 2005 में बना अक्षरधाम मंदिर, देश का अव्दितीय मंदिर है। पर देखकर ही पता चला कि भारतीय कला, प्रज्ञा, चिंतन, मूल्य यहां किस प्रकार संचित एवं आरक्षित किए गए हैं। मैथिली शरण गुप्त की- 'भारत भारती' का मानों यह अगला चरण है। (वह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, जिसके निवासी आर्य हैं, विद्या कला कौशल्य के जो प्रथम आचार्य हैं।) श्वेत और गुलाबी पत्थर से बने इस मंदिर को श्री भगवान स्वामी नारायण की पुण्य स्मृति में प्रमुख स्वामी महाराज व्दारा पांच वर्ष में आकार दिया गया। सौ एकड़ भूमि में फैले इस मंदिर के निर्माण में 7000 व्यक्तियों की बुद्धि एवं क्रियाओं का योगदान रहा । 22 एकड़ में तो उपवन ही फैले थे। उपवन खंडों में हरे रंग के विभिन्न शेड आकर्षित कर रहे थे। कनाट प्लेस से मात्र 15 मिनट की दूरी पर इतना शान्त एवं दिव्य लोक भी बसा हो सकता है, इसका बिल्कुल अनुमान नहीं था। दृश्य और श्रव्य हर रूप में यहां सूत्र (विचार) वाक्य ही बिखरे थे। दशव्दार के बाद हम भक्ति व्दार से निकले। इस भक्ति व्दार पर भक्ति एवं उपासना के 208 युगल स्वरूप मंडित थे। आगंतुकों का स्वागत करने वाला अगला व्दार- मयूर व्दार था। यहां सभी तोरण और स्तंभ 869 मयूरों का आनंदनृत्य प्रस्तुत कर रहे थे। महालय में भगवान स्वामी नारायण की पंचधातु निर्मित, स्वर्ण मंडित 11 फुट ऊॅंची प्रतिमा के अलावा लक्ष्मी नारायण, सीता राम, राधा कृष्ण, पार्वती महादेव की भी संगमरमर की प्रतिमाएं थी। महालय की बाहरी दीवार पर भारतीय ऋषियों, आचार्यों, देवताओं एवं महापुरुषों की स्थापना की गई थी। पत्थरों पर लोक कथाएं, पौराणिक आख्यान तराशे हुए थे।
ऐसी झलकियां तो हमें कहीं न कहीं दक्षिण के मंदिरों में भी मिल चुकी थी। अद्भुत था, यहां का प्रदर्शनी खंड। इसके भी तीन भाग थे- सहजानंद दर्शन, नीलकंठ दर्शन एवं संस्कृति विहार। सहजानंद दर्शन में भगवान स्वामी नारायण के जीवन प्रसंगों को रोबसेटिक्स, एनीमेट्रोनिक्स, ध्वनि प्रकाश, सराउण्ड डायोरामा आदि आधुनिक तकनीकों व्दारा प्रस्तुत करते हुए श्रद्धा, करुणा, शान्ति के सनातन मूल्यों का संदेश दिया गया था। सब मंत्रमुग्ध कर रहा था, हृदय ही नहीं, समस्त इद्रियों को प्रभावित कर रहा था। नीलकंठ दर्शन में बड़े पर्दे पर चालीस मिनट में बालयोगी नीलकंठ की जीवनयात्रा प्रस्तुत की गई थी। जिसकी शूटिंग 108 दृश्य स्थलों पर, 45000 पात्रों व्दारा संपन्न की गई थी। इस फिल्मांकन में उन्नीसवीं शताब्दी के भारत की झलक के साथ-साथ तीर्थस्थलों, सांस्कृतिक परंपराओं तथा उच्चत्तम जीवन मूल्यों का समाहार था।
संस्कृति विहार के लिए हम फिर लाइन में लग गए। खाना-पीना तो दूर, पानी की बोतल तक साथ ले जाना वर्जित था। सब तरफ खामोशी थी। यह नौका विहार का सेशन था। चौदह मिनट के लिए सरस्वती नदी के तट पर विहार का आयोजन था। दस हजार वर्ष पुरानी भारतीय संस्कृति को यहां आठ सौ पुतलों तथा अन्य अनेक उपक्रमों से मूर्त किया गया था। पूरा नौका विहार प्रत्येक भारतीय के अंदर आत्मविश्वास जगा रहा था, कि विश्व में तुम ही श्रेष्ठ हो। रात की गाड़ी से वापसी रही। आश्चर्य, कि थकान का नाम तक नहीं था।