गर्भावस्था और एनेस्थेसिया

-डॉ. मीनू चड्ड

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गर्भावस्था में स्त्री और बच्चे दोनों के लिए नाजुक समय होता है। इस दौरान दवाओं के सेवन से लेकर सामान्य खानपान में सावधानी की जरूरत होती है। कभी ऐसा मौका भी आ जाता है जब किसी बेहद जरूरी कारण से महिला को शल्यक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऐसे में गर्भस्थशिशु के साथ माता को एनेस्थेसिया देना बहुत जोखिम भरा हो सकता है।

गर्भावस्था एक सुखद घटना है व स्त्री के जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पुराने समय में शिक्षा या साधनों के अभाव में प्रसव पीड़ादायक होती थी एवं इस दौरान कई बार माता या शिशु के प्राणों को भी खतरा उत्पन्न हो जाता था। परंतु इन दुर्घटनाओं में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के परिणामस्वरूप काफी कमी आ गई है।

नौ महीने चलने वाली इस गर्भावस्था की प्रक्रिया के दौरान कभी-कभी स्त्रियों को अन्य कारणों से शल्यक्रिया की जरूरत पड़ती है। शल्यक्रिया के लिए एनेस्थेसिया देना आवश्यक हो जाता है। इसी कारण एनेस्थेसिया के बारे में जानकारी बहुत जरूरी है। गर्भ धारण करने के बाद तीन महीने तक बच्चे के विभिन्न अंग तैयार होना शुरू होते हैं। इस दौरान किसी भी दवा का सेवन गर्भ में बच्चे के विकास व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। गर्भनिरोधक या गर्भपात करने के लिए गोलियाँ इसी दौरान में ली गई हों तो अपंग या शारीरिक दोष वाला बच्चा पैदा होने का खतरा है। एनेस्थेसिया में दिए जाने वाली दवाइयों व एनेस्थेटिक गैसेस से भी गर्भपात हो सकता है। इसकी संभावना सामान्य महिलाओं की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक हो जाती है।

इसके अलावा टेट्रासायक्लिन, मिथोट्रिक्सेट, लिथीयम, प्रोजेस्ट्रॉन, धूम्रपान, मद्यपान करने से भी गर्भ में बढ़ते बच्चे को हानि पहुँच सकती है।

इसी वजह से पहले तीन महीनों में कोई भी दवा (चाहे फिर वह सरदर्द, सर्दी, जुकाम के लिए क्यों न हो), डॉक्टर की सलाह के बिना न लें। इस दौरान एनेस्थेसिया देते समय भी डॉक्टरों को सावधानी बरतना चाहिए। ऐसे समय गर्भवती स्त्री ने अपने गर्भ के बारे में एनेस्थेसिया देने वाले डॉक्टर को पहले ही बताना चाहिए। वरना छोटी-सी गलती की वजह से बच्चा अपंग पैदा हो सकता है। भविष्य में इसे टालने के लिए डॉक्टर एवं रोगी के बीच सामंजस्य रहना चाहिए।

गर्भावस्था के बीच का समय (दूसरी तिमाही) काफी हद तक सुरक्षित समझा जाता है। इस समय 'गर्भाशय का मुँह सिलना' की शल्यक्रिया के लिए एनेस्थेसिया की जरूरत पड़ सकती है। गर्भावस्था के आखिरी तीन महीने भी काफी महत्वपूर्ण हैं। इस समय सिजेरियन, इपीसीओटॉमी, उल्टा गर्भ, पीड़ा मुक्त प्रजनन आदि के लिए एनेस्थेसिया की जरूरत होती है। इस दौरान सामान्य रूप से बच्चे का हृदय काम करना शुरू कर देता है। इसलिए जो दवाइयाँ गर्भवती को दी जाती हैं, वो प्लासेंटा (नाल) के द्वारा बच्चे के रक्त में पहुँचकर असर कर सकती हैं जैसे कि हृदय का तेज चलना, कम होना इत्यादि। ऐसी सभी दवाइयाँ देते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए। प्रसव के पश्चात बच्चे का अपनी माँ से नाल कटने की वजह से संबंध टूट जाता है और बच्चे को अपने आप फेफड़ों और हृदय के साथ जिंदगी शुरू करनी होती है- इस समय यदि बच्चे को साँस लेने में तकलीफ हो तो कुछ दवाएँ देने से बच्चे की जान को खतरा हो सकता है। ऐसी सब बातों को ध्यान में रखते हुए रोगी को कौन-सा एनेस्थेसिया सहज हो सकता है। इस बात का निर्णय एनेस्थेटिस्ट ही ले सकते हैं।

माँ की स्थिति, बच्चे का स्वास्थ्य, माता का रक्तदाब, मधुमेह, हाथ, पैर, मुँह आदि पर सूजन इत्यादि बातों का ध्यान रखकर शल्य चिकित्सकों से विचार-विमर्श करने के बाद ही एनेस्थेसिया देते हैं।

स्पायनल एनेस्थेसिया (रीढ़ की हड्डी में सुई लगाकर दिया जाने वाला एनेस्थेसिया) में बहुत ही कम मात्रा में दवा का प्रयोग किया जाता है। अतः यह लाभदायी है। जचकी होने के बाद भी ऐसी कुछ दवाइयाँ होती हैं, जो माता के स्तनपान से बच्चे के शरीर में जा सकती हैं। जैसेडायजेपाम, क्लोरेमफेनिकॉल, टेट्रासाइक्लीन इत्यादि दवाइयाँ नहीं दी जातीं।

खास बात तो यह है कि गर्भवती स्त्री को किसी भी दवा का सेवन करने से पहले डॉक्टर की सलाह जरूर लेना चाहिए।