चौदहवीं पुतली सुनयना ने जो कथा कही वह इस प्रकार है-
राजा विक्रमादित्य सारे नृपोचित गुणों के सागर थे। उन जैसा न्यायप्रिय, दानी और त्यागी और कोई न था। इन नृपोचित गुणों के अलावा उनमें एक और गुण था। वे बहुत बड़े शिकारी थे तथा निहत्थे भी हिंसक से हिंसक जानवरों का वध कर सकते थे।
उन्हें पता चला कि एक हिंसक सिंह बहुत उत्पात मचा रहा है और कई लोगों का भक्षण कर चुका है, इसलिए उन्होंने उस सिंह के शिकार की योजना बनाई और आखेट को निकल पड़े। जंगल में घुसते ही उन्हें सिंह दिखाई पड़ा और उन्होंने सिंह के पीछे अपना घोड़ा दौड़ा दिया। वह सिंह कुछ दूर पर एक घनी झाड़ी में घुस गया। राजा घोड़े से कूदे और उस सिंह की तलाश करने लगे।
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अचानक सिंह उन पर झपटा, तो उन्होंने उस पर तलवार का वार किया। झाड़ी की वजह से वार पूरे ज़ोर से नहीं हो सका, मगर सिंह घायल होकर दहाड़ा और पीछे हटकर घने वन में गायब हो गया।
वे सिंह के पीछे इतनी तेजी से भागे कि अपने साथियों से काफी दूर निकल गए। सिंह फिर झाड़ियों में छुप गया। राजा ने झाड़ियों में उसकी खोज शुरू की। अचानक उस शेर ने राजा के घोड़े पर हमला कर दिया और उसे गहरे घाव दे दिए। घोड़ा भय और दर्द से हिनहिनाया, तो राजा पलटे। घोड़े के घावों से खून का फव्वारा फूट पड़ा।
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राजा ने दूसरे हमले से घोड़े को तो बचा लिया, मगर उसके बहते खून ने उन्हें चिन्तित कर दिया। वे सिंह से उसकी रक्षा के लिए उसे किसी सुरक्षित जगह ले जाना चाहते थे, इसलिए उसे लेकर आगे बढ़े। उन्हें उस घने वन में दिशा का बिलकुल ज्ञान नहीं रहा। एक जगह उन्होंने एक छोटी सी नदी बहती देखी। वे घोड़े को लेकर नदी तक आए ही थे कि घोड़े ने रक्त अधिक बह जाने के कारण दम तोड़ दिया।
उसे मरता देख राजा दुख से भर उठे। संध्या गहराने लगी थी, इसलिए उन्होंने आगे न बढ़ना ही बुद्धिमानी समझा। वे एक वृक्ष से टिककर अपनी थकान उतारने लगे। कुछ ही क्षणों बाद उनका ध्यान नदी की धारा में हो रहे कोलाहल की ओर गया, उन्होंने देखा दो व्यक्ति एक तैरते हुए शव को दोनों ओर से पकड़े झगड़ रहे हैं। लड़ते-लड़ते वे दोनों शव को किनारे लाए।
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उन्होंने देखा कि उनमें से एक मानव मुंडों की माला पहने वीभत्स दिखने वाला कापालिक है तथा दूसरा एक बेताल है जिसकी पाठ का ऊपरी हिस्सा नदी के ऊपर उड़ता-सा दिख रहा था। वे दोनों उस शव पर अपना-अपना अधिकार जता रहे थे। कापालिक का कहना था कि यह शव उसने तांत्रिक साधना के लिए पकड़ा है और बेताल उस शव को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहता था।
दोनों में से कोई भी अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं था। विक्रम को सामने पाकर उन्होंने उन पर न्याय का भार सौंपना चाहा तो विक्रम ने अपनी शर्तें रखीं। पहली यह कि उनका फैसला दोनों को मान्य होगा और दूसरी कि उन्हें वे न्याय के लिए शुल्क अदा करेंगे। कापालिक ने उन्हें शुल्क के रूप में एक बटुआ दिया जो चमत्कारी था तथा मांगने पर कुछ भी दे सकता था।
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बेताल ने उन्हें मोहिनी चंदन काष्ठ का टुकड़ा दिया जिसे घिसकर लगाकर अदृश्य हुआ जा सकता था। उन्होंने बेताल को भूख मिटाने के लिए अपना मृत घोड़ा दे दिया तथा कापालिक को तंत्र साधना के लिए शव। इस न्याय से दोनों बहुत खुश हुए तथा संतुष्ट होकर चले गए।
रात घिर आई थी और राजा को ज़ोरों की भूख लगी थी, इसलिए उन्होंने बटुए से भोजन मांगा। तरह-तरह के व्यंजन उपस्थित हुए और राजा ने अपनी भूख मिटाई। फिर उन्होंने मोहिनी काष्ठ के टुकड़े को घिसकर उसका चंदन लगा लिया और अदृश्य हो गए। अब उन्हें किसी भी हिंसक वन्य जन्तु से खतरा नहीं रहा।
अगली सुबह उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा अपने राज्य की सीमा पर पहुंच गए। उन्हें महल के रास्ते में एक भिखारी मिला, जो भूखा था। राजा ने तुरन्त कापालिक वाला बटुआ उसे दे दिया, ताकि जिंदगीभर उसे भोजन की कमी न हो।