रूढ़ीवादी दीवारों को तोड़कर देश की पहली मुस्लिम कोच बनी फातिमा बानो
गुरुवार, 23 नवंबर 2017 (00:18 IST)
- सीमान्त सुवीर
एक मुस्लिम महिला...वो भी पहलवानी का शौक..! उनका ये शौक कब जुनून में बदल गया, कुछ पता ही नहीं चला...मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को मुस्लिम बहुल शहर के रूप में भी जाना जाता रहा है, जहां ज्यादातर लड़कियां और महिलाएं पर्दानशीं रहती थी लेकिन समय के साथ यहां भी बदलाव आया है। फातिमा बानो नाम की ये महिला देश की एकमात्र महिला कुश्ती कोच हैं जिनका इंदौर के अभय प्रशाल में पिछले दिनों आयोजित 62 राष्ट्रीय सीनियर कुश्ती प्रतियोगिता के सिलसिले में आना हुआ।
1975 में जन्मी फातिमा में खिलंदड़पन बचपन से ही था और वे अच्छी खासी डीलडौल की थीं। खेलों की शुरुआत महिला कबड्डी से हुई और मध्यप्रदेश के लिए तीन नेशनल खेले। कबड्डी के बाद जूडो रास आ गया, लिहाजा उसमें भी उन्होंने मध्यप्रदेश की तरफ से 10 राष्ट्रीय स्पर्धाओं में हिस्सा ले डाला। फिर लगा कि क्यों न कुछ अलग किया जाए और कुश्ती सीखी जाए...उन्हें ये खयाल बरबस आया और खयाल ने जल्दी ही अमलीजामा पहन लिया।
जब फातिमा ने कुश्ती कला सीखनी शुरू की तो उन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। अधिकांश मुस्लिम परिवार कितने रूढ़ीवादी होते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है...इसके बाद भी फातिमा धुन की पक्की थीं और पिता सैयद नसरुल्ला और मां निशा बानो की नाराजगी की परवाह किए बिना अखाड़े में जोर आजमाइश करती रही। इसकी शुरुआत भोपाल के बुधवारिया स्थित गप्पू उस्ताद की व्यायामशाला से हुई। गप्पू उस्ताद का निधन हो चुका है लेकिन कुश्ती कला सिखाने के लिए फातिमा उनकी कर्जदार हो गईं...
फातिमा बानो इस वक्त उम्र के 42वें पड़ाव पर वे हैं और जब यादों की टहनियां हिलने लगती हैं तो चश्मे के भीतर से झांकती उनकी आंखों में चमक-सी आ जाती है। वे बताती हैं कि जब मैं कुश्ती कला को सीख रही थी, तब मोहल्ले वालों के ताने सीधे दिल पर लगते थे। मैंने भी इसका जवाब ढूंढ लिया था। जब लड़के मुझे देखकर फब्तियां कसते तो मेरा उत्तर होता 'एक बार मुझे पटककर बता दे तो मैं कुश्ती छोड़ दूंगी..और खुदा के वास्ते मैंने तुझे हरा दिया तो फिर मोहल्ले में मत दिखना। मेरे जवाब के बाद वे चुप हो जाते...
वक्त पंख लगाकर उड़ा जा रहा था...जब मैं 68 किलोग्राम भार समूह में राष्ट्रीय विजेता बनी तो मुझ पर हंसने वाले लोग मेरी पीठ थपथपा रहे थे। मां निशा बानो बेटी की कामयाबी के किस्से घर-घर सुना रही थीं। पिता सैयद नसरुल्ला भी अपनी इस होनहार बेटी पर नाज कर रहे थे। घर मेरी कामयाबी के पुरस्कारों से सजने लगा। फिर मेरा निकाह शाकिर नूर से हुआ, जो खुले विचारों वाले थे और खेलों से जुड़े हुए थे।
मध्यप्रदेश सरकार के सबसे बड़े खेल सम्मान 'विक्रम अवॉर्ड' से मुझे नवाजा गया। यही नहीं, मेरे शौहर शाकिरजी को भी 'विश्वामित्र अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। वैसे मैं 10 वर्षों तक मध्यप्रदेश खेल एवं युवक कल्याण विभाग में खेल अधिकारी भी रही। बाद में मैंने यह नौकरी छोड़कर 2006 से मैंने अपने पति की मदद से कुश्ती एकेडमी शुरू करके लड़कियों को मुफ्त कोचिंग देनी शुरू की।
मुस्लिम लड़कियों को अखाड़े तक लाना कोई मामूली काम नहीं था। मैं घर-घर भटकती और बच्चों के मां-बाप से अपनी बेटियों को कुश्ती सीखने की गुहार लगाती। आप समझ सकते हैं कि लड़कियों को अखाड़े भेजने के लिए मुझे किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ा होगा, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपने मकसद में लगी रही। आज मेरी कुश्ती एकेडमी में 10 लड़कियां इस कला के गुर सीख रही हैं और हैरत की बात तो यह है कि इनमें से तीन लड़कियां मुस्लिम हैं, जिन्हें मैंने गोद लिया है।
मैं भारतीय महिला कुश्ती टीम के साथ कजाकिस्तान भी जा चुकी हूं और वहां हमारी बेटियों ने पदक भी जीते थे। यही नहीं, जब रियो ओलंपिक की तैयारियों में 2016 में भारतीय कुश्ती टीम का राष्ट्रीय शिविर लगा, तब साक्षी मलिक के अलावा फोगाट बहनों को भी कोचिंग दी थी।
मुझे इसका बिलकुल भी मलाल नहीं है कि मैंने मर्दो का खेल कहे जाने वाले 'कुश्ती' को चुना, बल्कि इस बात का फख्र है कि मैं देश की पहली मुस्लिम महिला कुश्ती कोच भी हूं। मैं यही चाहती हूं कि मध्यप्रदेश की लड़कियां आने वाले समय में पदक जीते और तब ज्यादा खुशी होगी, जब कोई मुस्लिम लड़की के गले में पदक हो...तब मेरा मकसद पूरा हो जाएगा...