पुरानी कहावत है कि दोबारा शुरुआत करने में कभी देर नहीं होती और अगर कभी इस बात के प्रमाण की जरूरत पड़े तो एक बार फौजा सिंह (Fauja Singh) के जीवन पर गौर कर लेना जिन्होंने प्रतिबद्धता और जज्बे की अद्भुत मिसाल पेश की। फौजा सिंह ने 89 वर्ष की उम्र में मैराथन (Marathon) दौड़नी शुरू की और फिर दुनिया भर में अपने जोश और जज्बे का डंका जमाया। उनका सोमवार को 114 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।
उनकी उम्र के बावजूद, यह एक दिल दहला देने वाला अचानक अंत था। वह जालंधर स्थित अपने पैतृक गांव ब्यास पिंड में टहलने निकले थे, तभी एक अज्ञात वाहन ने उन्हें टक्कर मार दी।
Fauja Singh was a global icon.
The embodiment of Chardi Kala - "Rising Spirits".
At age 93 he completed a full marathon.
He went on to set world records, sign deals with global brands like Adidas and have childrens books published about him.
फौजा सिंह ने अपने जीवन में कई मुश्किलों का सामना किया। वह जब मैराथन धावक बने तो उन्होंने अपने करियर का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन में बिताया लेकिन संन्यास लेने के बाद तीन साल पहले वह अपने गांव लौट आए थे।
उनकी जीवनी 'द टर्बन्ड टॉरनेडो' के लेखक खुशवंत सिंह ने कहा, हम हमेशा उनसे कहते थे कि भारत में दौड़ने वाले उनकी उम्र के व्यक्ति को हमेशा टक्कर लगने का खतरा बना रहता है, क्योंकि यहां वाहन चलाने का तरीका बहुत लापरवाही वाला है। दुर्भाग्यवश आखिर में ऐसा ही हुआ।
फ़ौजा की असली कहानी तब शुरू हुई जब ज़्यादातर लोगों के लिए समय धीमा पड़ जाता है, खासकर उन लोगों के लिए जो ज़िंदगी की कई त्रासदियों से जूझ चुके हैं। वह भी जीवन के इन थपेड़ों से जूझ रहे थे।
फौजा सिंह 90 के दशक के मध्य में अपने छोटे बेटे की मौत से काफी व्यथित हो गए थे। इसके बाद जब उनकी पत्नी और बेटी का भी निधन हो गया तो उन्हें इंग्लैंड के एसेक्स में एक स्थानीय क्लब में दौड़ने से सांत्वना मिली।
खुशवंत ने बताया, गांव वालों ने उनके एक बेटे से कहा कि वह उन्हें ब्रिटेन ले जाए, क्योंकि वह शमशान घाट जाते रहते थे और घंटों वहीं बैठे रहते थे। इसलिए वह इलफोर्ड (पूर्वी लंदन का एक शहर) चले गए।
फौजा सिंह ने वहां पहुंचने के बाद ही दौड़ना शुरू किया। इसके बाद वह अंतरराष्ट्रीय स्तर के धावक बन गए और उन्होंने अपने दमखम और जज्बे से दुनिया भर के लोगों को हैरान कर दिया।
उन्होंने लंदन, न्यूयॉर्क और हांगकांग की प्रसिद्ध मैराथनों सहित अन्य मैराथनों में भाग लिया और कमजोर पैरों के साथ पैदा हुए 90 वर्ष से अधिक उम्र के इस व्यक्ति ने इस दौरान कुछ अच्छा समय भी निकाला जिससे पेशेवर धावक भी हैरान थे।
वह 2012 लंदन ओलंपिक में मशाल वाहक भी बने और खेल के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दिवंगत महारानी एलिजाबेथ द्वितीय द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया।
खुशवंत ने बताया, महारानी से मिलने से पहले हमें उन्हें बार-बार यह सलाह देनी पड़ी थी कि 'बाबा, महारानी नाल सिर्फ हाथ मिलाना है, जप्पी नी पानी जिनवेन बच्चें नु तुस्सी पांदे हो' (बाबा, आपको महारानी से सिर्फ हाथ मिलाना है, उन्हें गले मत लगाना, जैसे बच्चों से मिलते समय गले लगते हैं)।
उन्होंने कहा, लेकिन मज़ाक को छोड़ दें तो, वह एक बहुत ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे, जिनमें बहुत सारी सांसारिक बुद्धि थी। वह सामान्यतः पढ़ नहीं सकते थे, लेकिन संख्याओं को पहचान सकते थे।
उन्होंने कहा, वह ऐसे व्यक्ति थे जिनमें कोई लालच नहीं था। मैराथन दौड़कर कमाए गए हर एक पैसे को वह दान में देते थे। जब वह प्रसिद्ध हो गए, तो लोग गुरुद्वारों में भी उनके पास पैसे देने आते थे, लेकिन वह तुरंत ही उस धनराशि को वहां के दानपात्रों में डाल देते थे।
एक सच्चे, बड़े दिल वाले रूमानी पंजाबी की तरह, फौजा को अपनी पिन्नियां (घी, आटे और गुड़ से बनी मीठी गोलियां जिन पर सूखे मेवे लगे होते हैं) और मैकडॉनल्ड्स से कभी-कभार मिलने वाला स्ट्रॉबेरी शेक बहुत पसंद था।
लेकिन वह एक अनुशासित धावक भी थे जो दौड़ से पहले कड़ा अभ्यास करते थे।
उनकी सबसे यादगार दौड़ में से एक 2011 की थी जब वह 100 वर्ष के हो गए थे। टोरंटो में आयोजित आमंत्रण प्रतियोगिता का नाम उनके सम्मान में रखा गया था। उन्होंने अपने आयु वर्ग के कई विश्व रिकॉर्ड तोड़े थे।
लेकिन गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने इनमें से किसी को भी संज्ञान में नहीं लिया क्योंकि उनके पास अपनी उम्र साबित करने के लिए जन्म प्रमाण पत्र नहीं था।