1. गुरुकुल : प्राचीन भारत में स्कूल या विद्यालयों को गुरुकुल कहा जाता था। यह गुरुकुल बोर्डिंग की तरह होते थे, जहां पर लोग अपने बालक को 7 वर्ष की उम्र के बाद छोड़कर चले जाते थे। इस प्रकार के विद्यार्थियों को अन्तेवासी अथवा आचार्य कुलवासी कहा गया है। धर्मग्रंथों में विहित है कि विद्यार्थी उपनयन संस्कार के साथ ही गुरुकुल में निवास करे तथा विविध विषयों की शिक्षा प्राप्त करें। गुरुकुल सदैव वनों में ही स्थित नहीं होते थे किन्तु अधिकांशतः गुरुकुल ग्रामों तथा नगरों में भी अवस्थित होते थे।
2. को-एजुकेशन : लड़के और लड़कियों की समान शिक्षा को लेकर गुरुकुल काफी सक्रीय थे। शास्त्रों में उल्लेख है कि हर कोई अपने लड़के एवं लड़की को गुरुकुल में भेजे, किसी को शिक्षा से वंचित न रखें तथा उन्हें घर में न रखें।..हालांकि दोनों को ही अलग अलग बिठाकर पढ़ाया जाता था।
3. सभी वर्ग के लोग पढ़ते थे : इन गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रत्येक भारतीय अपने बच्चों को भेजता था तब किसी भी प्रकार का जाति, भाषा या प्रांत बंधन नहीं था। गुरुकुल में सबको समान सुविधाएं दी जाती थीं। सभी के अपने अपने कक्ष होते थे और सभी के कार्य बंटे हुए थे। सभी मिलकर गुरुकुल के कार्य करते थे। सांदिपनी ऋषि के आश्रम इसका उदाहरण है।
4. आठ वर्ष की उम्र में मिलता था प्रवेश : गुरुकुल में प्रवेश करने के लिए निर्धारित उम्र 8 वर्ष थी और कम से कम वहां पर 25 वर्ष की आयु तक रहकर ही पढ़ाई कर सकते थे। वहां छात्र तीन श्रेणियों में विभाजित थे- 1.वासु:- 24 साल की उम्र, 2.रुद्र:- 36 साल की उम्र और 3.आदित्य:- 48 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र थे। उनमें से कुछ वहीं पर शिक्षक या आचार्य बन जाते थे या कहीं ओर अपना गुरुकुल खोल लेते थे।
7. आचार्य पद होता था सबसे बड़ा : इन गुरुकुल में कई शिक्षक होते थे जिनका मुख्य शिक्षक आचार्य कहलाता था। आचार्य उसे कहते हैं जिसे वेदों और शास्त्रों का ज्ञान हो और जो गुरुकुल में विद्यार्थियों को शिक्षा देने का कार्य करता हो। आचार्य का अर्थ यह कि जो आचार, नियमों और सिद्धातों आदि का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो। आचार्य के अधीन ही उपाध्याय होते थे। पुजारी पूजा करने वाला, पंडित किसी विद्या या ज्ञान में विशेषज्ञता रखना वाला। पुरोहित जो यज्ञ एवं अन्य संस्कारों को करवाने वाला था। वह जो कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो उसे भी आचार्य कहा जाता था।
8. प्रत्येक गुरुकुल अलग था : प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था। कोई धनुर्विद्या सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान देने में। कोई अस्त्र-शस्त्र सिखाने में तो कोई ज्योतिष और खगोल विज्ञान में दक्ष था। छात्र अपनी इच्छा से यहां जो सिखना होता था वह सीखकर दूसरे गुरुकुल में चला जाता था। कुछ ऐसे भी गुरुकुल थे जो संपूर्ण कोर्स प्रोवाइड करवाते थे।
9. वेद के साथ विज्ञान की शिक्षा : गुरुकुल में छात्र इकट्ठे होकर वेद के कुछ भाग को कंठस्थ करते थे और विद्याएं सिखते थे। इन विद्याओं में योग, अस्त्र-शस्त्र, ज्योतिष, खगोल, स्थापत्य, संगीत, नृत्य, शिल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, वास्तु, सामुद्रिक शास्त्र, भाषा, लेखन, नाट्य, नौटंकी, तमाशा, चित्रकला, मूर्तिकला, पाक कला, साहित्य, बेल-बूटे बनाना, कपड़े और गहने बनाना, सुगंधित वस्तुएं-इत्र, तेल बनाना, नगर निर्माण, सूई का काम, बढ़ई की कारीगरी, पीने और खाने के पदार्थ बनाना, सोने, चांदी, हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा करना, आदि 64 प्रकार की कलाएं बताई गई जाती थी। इसके अलावा 16 कलाएं और रहस्यमयी विद्याओं का भी ज्ञान दिया जाता था। जिसकी जिसमें रुचि होती थी वह वैसे विषय चयन करके दीक्षा लेता था। अधिकांश शिक्षण व्यावहारिक था।
10. जीवन बंटा था चार भागों में : आश्रम चार हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। आश्रम ही हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था है। आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की उम्र 100 वर्ष मानकर उसे चार भागों में बांटा गया है। उम्र के प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और बुद्धि के विकास को निर्धारित किया गया है। दूसरा गृहस्थ आश्रम है जो 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है जिसमें शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या कार्य को करते हुए अर्थ और काम का सुख भोगते हैं। 50 से 75 तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर जनसेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान का विधान है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त होकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश कर संन्यासियों के ही साथ रहता है। ब्रह्मचर्य आश्रम को ही मठ या गुरुकुल कहा जाता है।