मेरे प्रिय देशवासियों,
कहने को मैं एक टीचर हूं। देश के बच्चों के भविष्य की नींव तैयार करने वाला। उन्हें आदर्श का रास्ता दिखाने वाला। ज्ञान की ज्योति से समाज में उजियारा करने वाला। सिर्फ किताबी ही नहीं, जिंदगी के हर इम्तिहान को पार करने की ताकत देने वाला। हर कोई चाहता है कि मैं उनके बच्चों का भविष्य संवार दूं।
इसलिए खेत में अनाज उगाने वाले किसान, अविष्कार करने वाले वैज्ञानिक और सीमा पर सीने पर गोली खाने वाले किसी सैनिक से कम नहीं है मेरा योगदान।
लेकिन शायद किसी को नजर नहीं आता है कि मैं हर रोज जिंदगी की परीक्षा से गुजरता हूं। शिक्षा के मंदिर में मेरी योग्यता परखी जाती है तो वहीं जिंदगी में मुझे कदम-कदम पर परीक्षा देना होती है। मैं बच्चों के प्रति जवाबदेही हूं तो उनके माता-पिता के प्रति भी। मैं अपने अधिकारियों के प्रति जवाबदेह हूं तो देश के पूरे शिक्षा के सिस्टम के प्रति भी।
ये देश, इसकी सरकार और यहां की प्रजा चाहती है कि मैं शिक्षा में कोई क्रांति कर दूं, जिससे उनके बच्चें विदेशों में नौकरी कर के लाखों-करोड़ों रुपए का पैकेज प्राप्त करें।
सारे परिजन अपने बच्चों के सपने मेरे कांधों के भरोसे पूरे करना चाहते हैं।
इतनी सारी जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर है कि इस बोध से मैं पूरी तरह झुक गया हूं। लेकिन सरकार को अब भी मेरे कंधें खाली नजर आते हैं। इसलिए वो कभी मुझे चुनाव में लगा देती है तो जनगणना और यहां तक कि पशुगणना में भी ड्यूटी लगा देती है।
इसके ठीक उलट अगर कोई मेरी जिंदगी की तरफ नजर डालेगा तो पता चलेगा कि न तो मेरे पास कोई सपना बचा है न ही मेरी कोई हकीकत है।
मैं इन आदर्श जिम्म्ेदारियों के बोझ तले इतना दबा दिया गया हूं कि मेरा अस्तित्व ही खत्म हो चला है।
न मेरा कोई दिन है न रात। दिन में बच्चों को पढ़ाता हूं तो रात में यह सोचकर जागता हूं आखिर कैसे बच्चे ज्यादा नंबर लाकर सफल हों।
कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षा की ज्योति जलाने वाले मुझ शिक्षक के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, आलम यह है कि खुद मेरे पास अपने बच्चों का होमवर्क कराने का वक्त ही बचा है।
हर वक्त मुझे चिंता खाए जाती है कि मेरे स्कूल के बच्चें के नंबर कम आए तो मैनेजमेंट को क्या जवाब दूंगा।
बच्चे ठीक से परफॉर्म नहीं कर पाते तो उसके एवज में डांट मुझे खाना पड़ती है। बच्चे गलती करें तो उनके परिजन मुझे दो बातें सुनाने आ जाते हैं।
कहने को शिक्षक का पेशा बेहद सम्मानजनक होता है, लेकिन हकीकत यह है कि हमारा कोई सम्मान है न कोई अस्तित्व है। चंद वेतन के बदले सभी हमसे यह चाहते हैं कि हम उनके बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, पायलेट, वैज्ञानिक सबकुछ बना दें।
लेकिन जब बात आती है हमारे पेट की, हमारे अस्तित्व की, हमारे बच्चों के भविष्य की और हमारे जीवन की तो सबकुछ शून्य सा नजर आता है। न हम बीपीएल श्रेणी में हैं, न ही हमारे नाम खाद्य सुरक्षा की योजना है। कोई सब्सिडी नहीं, कोई सहायता नहीं। हमारी इतनी हैसियत भी नहीं कि जरुरी काम के लिए बैंक से चंद हजार रुपयों का लोन ले लें। घर का किराया भरते-भरते उम्र गुजर रही हैं। बच्चों की छोटी-छोटी उम्मीदें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। भाग्य में न कोई यात्रा है और न ही कोई और सुख।
लॉकडाउन के भयावह दौर में शिक्षकों की इस गरीबी में उनका आटा और ज्यादा गीला हो गया है। अखबार, केबल कनेक्शन बंद कर दिए। दूध आधा लीटर हो गया। राशन का सामान आधा कर दिया। फिर भी जेब और हाथ हजार बार टटोलने पर भी कुछ नजर नहीं आता।
जिंदगी के शेष दिन आखिर कैसे गुजरेंगे, इसकी शिकन रातभर सोने नहीं देती। हमें कुछ हो जाता है तो बीवी- बच्चों का भविष्य क्या होगा। कोई बीमा नहीं, कोई टर्म इंश्योरेंस नहीं। सिर्फ यही दूआ करते रहते हैं कि घर में कोई बीमार न पड़ जाए।
हम आदर्श शिक्षक कहे जाने वालों के हिस्से में दुख और पीड़ा की यह एक अदद चिठ्ठी ही है जो आपके नाम लिखी गई है। क्योंकि हमारा कोई सोशल मीडिया नहीं, कोई हैशटैग और कोई ट्रेंड नहीं है। कोई धरना, भूख हड़ताल और कोई आंदोलन नहीं है।
बस एक हमदर्दी की उम्मीद है कि हमारे इन तमाम दुखों की यह चिठ्ठी किसी वाजिब हाथ तक पहुंचा देगा!
धन्यवाद, अपना अस्तित्व मिटाकर आपका भविष्य संवारने वाला एक आदर्श शिक्षक।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अनुभूति है, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)