हमने मनाई ईद यहाँ पर, तुमने मनाई दीवाली
देश में पंद्रह अगस्त लाया, सबके वास्ते ख़ुशहाली
सरहदों पर फ़तह का ऎलान हो जाने के बाद,
जंग
बे-घर, बे-सहारा,
सर्द ख़ामोशी की आंधी में बिखर के
कई दिन से सावन बरसता है रिमझिम
हवा झूमती है घटा गा रही है
'आह! वो रातें, वो रातें याद आती हैं मुझे'
आह, ओ सलमा! वो रातें याद आती हैं मुझे
है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो मंगों को तो मंहगी है और सस्तों को ये सस्ती है
कहते हैं जिसे अब्र वो मैखाना है मेरा
, जो फूल खिला बाग़ में पैमाना है मेरा
गर्द-ओ-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मर कर भी चाहते हैं ख़ाक-ए-वतन कफ़न को
क्यों तेरे ग़म-ए-हिज्र में नमनाक हिं पलकें, कि याद तेरी आते ही तारे निकल आए
हुस्न कम्प्यूटर से पूछेगा मुझे भी तो बता
मेरा शोहर कौन होगा उसका नाम उसका पता...
नस्ल-ए-नौ का दौर आया है नए आशिक़ बने
अब सिवय्यों की जगह चलने लगे छोले चने
दरिया को अपनी मौज की तुग़यानियों से काम
यारब मेरे नसीब में अकलेहलाल हो
खाने को क़ोरमा हो, खिलाने को दाल हो
जानता हूँ कि ग़ैर हैं सपने
और खुशियाँ भी ये अधूरी हैं
सावन की घटाएँ छा गईं है
, बरसात की परियाँ आ गई हैं