पेशकश : अज़ीज़ अंसारी
ज़िन्दगी लगती है इक प्यारी ग़ज़ल सी लेकिन,
इस का हर शे'र बड़ा दर्द भरा होता है।
इश्क़ कहते हैं जिसे काम निकम्मों का नहीं
वस्ल इक उम्र की महनत का सिला होता है
मत पूछो कट रही है कैसे किसी के साथ में
इक हथकड़ी हो जैसे दो क़ैदियों के हाथ में
दो अकेले मिल नहीं सकते अकेले में कहीं,
भीड़ में तन्हाओं की नापैद तन्हाई हुई।
बारयाबी कोई आसान है तेरे हुज़ूर,
तुझसे नाज़ुक है तबीयत तेरे दरबानों की।
कट रही है ज़िन्दगी रोते हुए
और वो भी आप के होते हुए
साए में ज़रा बैठ गया धूप का मारा
दीवार तो लेकर नहीं जाएगा बेचारा
हमको मालूम है इस अब्र-ए-करम की आदत,
प्यासे खेतों पे ये बारिश नहीं होने वाली।
कैसा शहर है तेरा जिसमें
कोई किसी का कुछ न लागे
देरीना आरज़ू है दिले-दर्दमन्द की,
हम ज़िन्दगी जियेंगे अब अपनी पसन्द की।
हम वो फ़क़ीर हैं जिसे आता गिला नहीं
शायद इसी लिए हमें कुछ भी मिला नहीं
पूछिए तारों के दिल से होलनाकी रात की,
सूरजों को क्या ख़बर जो सुबहा तक सोते रहे।
हम न कहते थे न लाओ शेख़-ओ-पंडित को यहाँ,
लीजिए उठने लगी दीवार मैख़ानों के बीच।
हर दो क़दम पे मस्जिद-ओ-मन्दिर के बावजूद,
दुनिया तमाम धन की पुजारी लगी हमें।
ये झूमना पेड़ों का, परिन्दों का चहकना,
मेरे लिए तफ़रीह का सामान बहुत है।