तबसिरा

किताब --"तितलियाँ आस-पास", शायर--अज़ीज़ अंसारी
तबसिरा निगार ---जनाब कौसर सिद्दीक़ी--भोपाल

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अज़ीज़ अंसारी आज़ादी के बाद मालवा की सरज़मीन से उभरने वाले मारूफ़ कोहना मश्क़ शायर हैं। आपकी शायरी के कई मजमूए शाए होकर मंज़रे-आम पर आकर दाद-ओ-तहसीन हासिल कर चुके हैं। तीन शे'री मजमूए उर्दू के साथ देवनागरी रस्मुल्ख़त में भी शाए हो चुके हैं। चौथा ज़ेरे तबसिरा मजमूआ उर्दू के साथ देवनागरी रस्मुल्ख़त में भी है।

ज़ेरे-नज़र मजमूए में 171 सलासी हैं। जिनको अज़ीज़ अंसारी ने तसलीस के नाम से मानून किया है। जबके इस सिंफ़ का तसलीम शुदा नाम सलासी है। हिमायत अली शायर ने सलासी के लिए बेह्र-ओ-वज़्न की कोई क़ैद नही रखी है। इस वजह से सलासी की रुबाई की तरह कोई मख़सूस शिनाख़्त नहीं हो सकी है।

उर्दू में इस वक़्त कई सेहमिसरी इसनाफ़ राइज हैं। जिन की शिनाख़्त सिर्फ़ तीन मसारीअ नहीं बलके उनकी मख़सूस बहर और हैय्यत है। इसलिए सलासी की भी आज़ादाना शिनाख़्त के लिए तीन मिसरों के साथ बहर के औज़ान का तअय्युन भी ज़रूरी है।

ज़ेरे-तबसिरा किताब में फ़ाज़िल शायर ने आज के मंज़रनामे की अक्कासी करने की कामयाब कोशिश की है। दुखते और धड़कते दिलों के जज़बात के साथ, आज के समाजी, सियासी और दीगर असरी मसाइल की ग़म्माज़ी भी अज़ीज़ साहब ने ख़ूब की है। कुछ नमूने बिला इंतिख़ाब मिलाहिज़ा फ़रमाएँ।

फूल बिखरे हुए हैं राहों में
जब से वो मुझको मिल गया है अज़ीज़
सारी दुनिया है मेरी बाँहों में

बिखरे तिनकों के पास बैठा है
बूढ़े बरगद की शाख़ पर तन्हा
क्यों परिन्दा उदास बैठा है

ये मजमूआ उर्दू के साथ हिन्दी रस्मुलख़त में भी होने की वजह से उर्दू और हिन्दी दोनों के क़ारेईन के लिए यकसाँ मुफ़ीद है। लेकिन ये अलग-अलग होते तो क़ारी को दूसरी ज़ुबान की वजह से क़ीमत के इज़ाफ़े का ार न उठाना पड़ता।

बहरकैफ़ ज़ाहेरी हुस्न के साथ बातनी हुस्न का अच्छा नमूना है। अग़लात से पाक कंपोज़िंग और अच्छी तबाअत मुतावज्जा करती है। ये किताब सेह मिसरी शायरी में अमूमी तौर पर और सलासी में ख़ुसूसी तौर पर इज़ाफ़ा है।