मोमिन -2

1. हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र* कुछ चाहिए सताने को -----बहाना

संग-ए-दर* से तेरे निकाली आग--- ----दरवाज़े का पत्थर, चोखट
हमने दुश्मन का घर जलाने को

चल के काबे में सजदा कर मोमिन
छोड़ उस बुत के आस्ताने* को --------- --घर

2.
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-अदम* में शब-ए-हिजराँ* होंगे-------कभी न ख़त्म होने वाला सपना
* जुदाई की रात

एक हम हैं कि हुए ऎसे पशेमान* कि बस------शर्मिन्दा
एक वो हैं कि जिन्हें चाह* के अरमाँ होंगे------चाहत

हम निकालेंगे सुन ए मौज-ए-सबा बल तेरा -- हवओं के झोंके
उसकी ज़ुलफ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे

फिर बहार आई वही दश्त नवरदी होगी --- मरूस्थल में भटकना
फिर वही पाँव वही खार-ए-मुग़ीलाँ होंगे----- बबूल के काँटे

मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा* न उठाएँगे कभी-----हज़रत ईसा की ख़ुशामद
ज़िन्दगी के लिए शर्मिन्दा-ए-एहसाँ* होंगे? -----एहसान लेके शर्मिन्दा होना

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ*में मोमिन----हसीनों से प्यार-मोहब्बत में
आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे

3. ये हासिल है तो क्या हासिल बयाँ से
कहूँ कुछ और कुछ निकले ज़ुबाँ से

बुरा है इश्क़ का अंजाम यारब
बचाना फ़ितना-ए-आखिर ज़माँ से

मेरा बचना बुरा है आप ने क्यों
अयादत* की लब-ए-मोजज़ बयाँ से----- बीमार का हाल जानना

वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
तुझे ए ज़िन्दगी लाऊँ कहाँ से

न बोलूँगा न बोलूँगा कि मैं हूँ
ज़्यादा बदगुमाँ उस बदगुमाँ से

न बिजली जलवा फ़रमा है न सय्याद
निकल कर क्या करें हम आशयाँ से

बुरा अंजाम है आग़ाज़-ए-बद* का------बुरा
जफ़ा की हो गई खू* इम्तिहाँ से -----आदत

खुदा की बेनियाज़ी* हाय 'मोमिन'-------लापरवाही
हम ईमाँ लाए थे नाज़-ए-बुताँ* से-----हसीनों के नख़रे

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