रंगों की बौछार से शायर भी नहीं बचे

त्योहारों के हमारे परंपरावादी देश में होली ऐसा पर्व है, जो हरेक को चाहे-अनचाहे और जाने-अनजाने अपने कच्चे-पक्के रंग में सराबोर कर देता है। चेहरे ऐसे रंगारंग हो जाते हैं कि धर्म, जाति, वर्ण और संप्रदाय की सारी पहचान गुम हो जाती है। विवाद, विषाद और विविधता को भूलकर एक ही स्वर गूंजने लगता है- होली है...............

उर्दू शायरी भी होली के रंगों से बच नहीं पाई है। अठारहवीं सदी से आज तक के शायरों ने अपने कलामों में होली का जो रंग बिखेरा है वह इस बात का प्रमाण है कि दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर सद्भाव को प्रदूषित करने के सारे प्रयास कुछ निहित स्वार्थी तत्वों की शरारत तो हो सकते हैं परन्तु वे सतही ही होते हैं। हकीकत में हर भारतीय इस धरा और यहाँ की संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ा है।

सन्‌ 1800 के आसपास की एक अरबी रचना 'हफ्त तमाशा' इसी बात का प्रमाण है। इसमें होली पर एक टिप्पणी है- कुछ परस्पर विद्वेष रखने वाले लोगों को छोड़कर सारे मुसलमान भी होली खेलते थे, जिसमें छोटे से छोटा आदमी बड़े से बड़े आदमी पर रंग डाल देता था। पर कोई इसका बुरा नहीं मानता था।

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इस पृष्ठभूमि में उर्दू शायरी में होली के रंग को निहारें तो सबसे पहले याद आते हैं फायज देहलवी। औरंगजेब के कथित कट्टरवादी सांप्रदायिक दौर में इस मशहूर शायर ने दिल्ली की होली अपनी शायरी में कुछ यूं दोहराई है-

त्योहारों के हमारे परंपरावादी देश में होली ऐसा पर्व है, जो हरेक को चाहे-अनचाहे और जाने-अनजाने अपने कच्चे-पक्के रंग में सराबोर कर देता है। चेहरे ऐसे रंगारंग हो जाते हैं कि धर्म, जाति, वर्ण और संप्रदाय की सारी पहचान गुम हो जाती है।

ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल

छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल

ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार

दौड़ती हैं नारियां बिजली की सा


उर्दू शायरी के स्वर्णिम युग के मशहूर शायर मीर की होली पर एक कृति है 'साकी नाम होली', जिसमें शायर का उन्माद और होली की उन्मुक्तता अधिक मुखरित हुई है-

आओ साकी, शराब नोश करें

शोर-सा है, जहां में गोश करें

आओ साकी बहार फिर आई

होली में कितनी शादियां ला


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आसफुद्दौला के समय में मीर लखनऊ में थे। उन्होंने उसके दरबार की होली का वर्णन करते हुए कहा है-

होली खेला आसफुद्दौला वजीर।

रंग सोहबत से अजब हैं खुर्दोपीर।


अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने भी अपनी रचनाओं में पारंपरिक रंगों से फाग खेला है-

क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी

देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी...


नवाब सआदत अली खां की हुकूमत के दौर में एक शायर हुए महज़ूर जिनकी एक प्रसिद्ध नज़्म का शीर्षक है- 'नवाब सआदत की मजलिसे होली'। इस श्रंगारिक कृति की पहली पंक्ति है-

मौसमे होली का तेरी बज़्म में देखा जो रं


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नज़ीर अकबराबादी ने होली पर करीब एक दर्जन नज़्में कही हैं और क्या खूब कही हैं-

गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो

कपड़ों पर रंग की छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो

मुंह लाल गुलाबी ंखें हों और हाथों में पिचकारी हो

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो

तब देख नजारे होली के


एक मशहूर शायर हुए हातिम उनकी नज़्में भी होली के रंग से बच नहीं पाईं। वे कहते हैं-

मुहैया सब है अब अस्बाबे होली।

उठो यारों भरों रंगों से झोली


फायज देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महज़ूर, बहादुरशाह ज़फर और नज़ीर के अलावा मुगल काल में जिन उर्दू शायरों ने अपनी नज़्मों में होली खेली है, उनमें कुछ नाम ये भी हैं- आतिश, ख्वाजा हैदर अली 'आतिश', इंशा और तांबा। इन सारे मशहूर शायरों की होली की रचनाओं में उनकी धार्मिक उदारता उफनती नजर आती है। इसीलिए किसी ने कहा है-

खाके- शहीदे-नाज से भी होली खेलिए

रंग इसमें है गुलाब का बू है अबीर की।



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