ग़ज़लें : जिगर मुरादाबादी

1. साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया

बेकैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया
तौबा को तोड़-तोड़ के थर्रा के पी गया

ज़ाहिद ये मेरी शोखी-ए-रिनदाना देखना
रेहमत को बातों-बातों में बहला के पी गया

Aziz AnsariWD
सरमस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई
दुनिया-ए-ऎतबार को ठुकरा के पी गया

आज़ुर्दगी ए खा‍तिर-ए-साक़ी को देख कर
मुझको वो शर्म आई के शरमा के पी गया

ऎ रेहमते तमाम मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इंतेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया

पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल
दरपरदा चश्म-ए-यार की शेह पा के पी गया

इस जाने मयकदा की क़सम बारहा जिगर
कुल आलम-ए-बसीत पर मैं छा के पी गया

2. कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी

ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी

सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी

रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी

न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी

तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी

अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी

वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी

लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी

मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़े शेर ओ फ़न साक़ी

3.
काम आखि़र जज्बा-ए-बेइख्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गया

जब निगाहें उठ गईं अल्लाहरे मेराज-ए-शौक़
देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया

हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया

हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया

इस तरहा ख्नुश हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया

हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया

जान ही दे दी जिगर ने आज पा-ए-यार पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया

4. कोई ये कहदे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन

कामिल रेहबर क़ातिल रेहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुशमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

उमरें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक अक़्ल का बचपन

इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कारे शीशा-ओ-आहन

खै़र मिज़ाज-ए- हुस्न की यारब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन

आ कि न जाने तुझ बिन कल से
रूह है लाशा, जिस्म है मदफ़न

काँटों का भी हक़ है कुछ आखि़र
कौन छुड़ाए अपना दामन