ग़ज़लें : ख्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली

1.
ND

है जुस्तुजू के ख़ूब से है ख़ूबतर कहा
अब देखिए ठहरती है जाकर नज़र कहाँ

यारब इस इख़तेलात का अंजाम हो ब्ख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहा

इक उम्र चाहिए के गवारा हो नीशे इश्
रक्खी है आज लज़्ज़्ते ज़ख़्मे जिगर कहा

बस हो चुका बयाँ कसल ओ रंजे राह क
ख़त का मेरे जवाब है ऐ नामाबर कहा

कौनो मकाँ से है दिले वेहशी किनारागीर
इस ख़ानुमा ख़राब ने ढूँढा है घर कहा

होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्के इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो दुआ में असर कहा

हाली निशाते नग़मा ओ मै ढूँढते हो अब
आए हो वक़्ते सुबहा रहे रातभर कहाँ

2.
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लग
आप कुछ कहके मुस्कुराने लग

था यहाँ ताअने वस्ले अद
उज़्र उनकी ज़ुबाँ पे आने लग

हमको जीना पड़ेगा फ़ुरक़त मे
वो अगर हिम्मत आज़माने लग

डर है मेरी ज़ुबाँ न खुल जाए
अब वो बातें बहुत बनाने लग

जान बचती नज़र नहीं आत
ग़ैर उलफ़त बहुत जताने लग

तुमको करना पड़ेगा उज़्रे जफ़
हम अगर दर्दे दिल सुनाने लग

सख्त मुश्किल है शेवाए तसलीम
हम भी आख़िर को जी चुराने लग

जी में है लूं रज़ा ए पीरे मुग़ा
क़ाफ़ले फिर हरम को जाने लग

वक़्ते रुख़सत था सख्त हाली पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लग
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