'वास्तु' शब्द का अर्थ है- निवास करना। जिस भूमि पर मनुष्य निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। वास्तुशास्त्र में गृह निर्माण संबंधी विविध नियमों का प्रतिपादन किया गया है। उनका पालन करने से मनुष्य को अन्य कई प्रकार के लाभों के साथ-साथ आरोग्य लाभ भी होता है।
* गृह में जल स्थान- कुआं या भूमिगत टंकी पूर्व, पश्चिम, उत्तर अथवा ईशान दिशा में होनी चाहिए। जलाशय या ऊर्ध्व टंकी उत्तर या ईशान दिशा में होनी चाहिए। यदि घर के दक्षिण दिशा में कुआं हो तो अद्भुत रोग होता है। नैऋत्य दिशा में कुआं होने से आयु का क्षय होता है।
* घर में कमरों की स्थिति- यदि एक कमरा पश्चिम और एक कमरा उत्तर में हो तो वह गृहस्वामी के लिए मृत्युदायक होता है। इसी तरह पूर्व और उत्तर दिशा में कमरा हो तो आयु का ह्रास होता है। पूर्व और दक्षिण दिशा में कमरा हो तो वात रोग होता है। यदि पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में कमरा हो, पर दक्षिण में कमरा न हो तो सब प्रकार के रोग होते हैं।
* गृह के आंतरिक कक्ष- स्नान घर 'पूर्व' में, रसोई 'आग्नेय' में, शयनकक्ष 'दक्षिण' में, शस्त्रागार, सूतिकागृह, गृह-सामग्री और बड़े भाई या पिता का कक्ष 'नैऋत्य' में, शौचालय 'नैऋत्य', 'वायव्य' या 'दक्षिण-नैऋत्य' में, भोजन करने का स्थान 'पश्चिम' में, अन्न-भंडार तथा पशुगृह 'वायव्य' में, पूजागृह 'उत्तर' या 'ईशान' में, जल रखने का स्थान 'उत्तर' या 'ईशान' में, धन का संग्रह 'उत्तर' में और नृत्यशाला 'पूर्व, पश्चिम, वायव्य या आग्नेय' में होनी चाहिए। घर का भारी सामान नैऋत्य दिशा में रखना चाहिए।
* किसी मार्ग या गली का अंतिम मकान कष्टदायी होता है।
* ईशान दिशा में पति-पत्नी शयन करें तो रोग होना अवश्यंभावी है। सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चाहिए। उत्तर या पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से शरीर में रोग होते हैं तथा आयु क्षीण होती है।