लाल साड़ी वाली माँ!

- सुधा मूर्ति
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एक बार मुझे मातृत्व पर आयोजित एक संगोष्ठी में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। इस संगोष्ठी में अच्छी-खासी संख्या में लोगों ने शिरकत की और सभी क्षेत्रों में काम करने वाले लोग एकत्रित हुए थे। उनमें से कुछ चिकित्सक थे तो कुछ अनाथालयों से बच्चे गोद दिलाने वाली संस्थाएँ भी थीं और गैर सरकारी संगठन भी

कुछ धार्मिक प्रमुख, सफल माताएँ (आयोजकों के अनुसार जिसकी परिभाषा में वे माताएँ आती थीं, जिनके बच्चे जीवन में सफल थे और बहुत अधिक कमा रहे थे), युवा माताएँ सभी वहाँ थे।

वहाँ अनेक स्टॉल थे, जहाँ बच्चों से संबंधित वस्तुएँ, मातृत्व पर तथा किशोरों के साथ कैसे व्यवहार करें विषय पर पुस्तकें थीं। वक्ता अच्छे थे और ज्यादातर समय उन्होंने हृदय से अपने अनुभव वहाँ बताए। लगातार प्रसिद्घ व्यक्तियों की तस्वीरें खींचता मीडिया वहाँ पूरी ताकत के साथ मौजूद था। चूँकि यह कार्यक्रम समाज कल्याण विभाग द्वारा आयोजित किया गया था इसलिए वहाँ सरकारी अधिकारी और बड़ी संख्या में विद्यार्थी भी मौजूद थे।

जब मेरी बारी आई तो मैंने एक घटना से शुरुआत की, जिसे मैंने कई वर्ष पहले देखा था। मंजुला मेरी एक दोस्त डॉ. आरती के घर खाना बनाने का काम करती थी। उसका पति एकदम निकम्मा था। उसके 5 बच्चे थे और जब छठी बार गर्भवती हुई तो उसने तय किया कि वह गर्भपात करवा लेगी। उसने नसबंदी कराने का निश्चय किया।

यद्यपि डॉ. आरती के पास एक और ही विचार था। उनकी बहन धनी थी लेकिन वह निःसंतान थी और एक नवजात शिशु को गोद लेना चाहती थी। वो व्यग्रता से एक बच्चे की खोज में थी। इसलिए डॉ. आरती ने एक सुझाव दिया- 'मंजुला गर्भपात कराने की बजाय तुम इसे जन्म क्यों नहीं देती। लड़का हो या लड़की, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी। वो इस शहर में रहेगी भी नहीं इसलिए दोबारा तुम्हें उस बच्चे की शक्ल नहीं देखनी पड़ेगी

वो इसे कानूनी तौर पर गोद लेगी और तुम्हें तुम्हारे दूसरे बच्चों की पढ़ाई में मदद भी देगी। ये बच्चा जो तुम्हारे लिए अनचाहा है, अच्छी तरह और बहुत लाड़-प्यार में पलेगा। इस बारे में सोच लो और निर्णय तुम्हारा ही होगा, मैं जोर नहीं डालूँगी।' मंजुला कुछ दिनों तक विचार करने के बाद इस प्रस्ताव पर राजी हो गई
  उसने बच्चे को अपने कमजोर शरीर से लगा लिया और रोना शुरू कर दिया था- 'मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ लेकिन अगर मेरे पास एक मुट्ठी चावल भी होगा तो मैं उसे इसके साथ बाँट लूँगी। लेकिन मैं इसे अपने से अलग नहीं कर पाऊँगी।       

कुछ महीने बाद उसने एक लड़की को जन्म दिया। सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद डॉ. आरती की बहन भी उस दिन वहाँ आ गई थी। यह तय हुआ कि बच्चे के जन्म के एक दिन बाद वह उसे ले जाएगी। लेकिन जब बच्चा देने की बारी आई तो मंजुला ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया

उसके स्तनों में दूध उतर आया था और उसने बच्चे को दूध पिलाना भी शुरू कर दिया था। उसने बच्चे को अपने कमजोर शरीर से लगा लिया और रोना शुरू कर दिया था-

'मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ लेकिन अगर मेरे पास एक मुट्ठी चावल भी होगा तो मैं उसे इसके साथ बाँट लूँगी। लेकिन मैं इसे अपने से अलग नहीं कर पाऊँगी

वह बहुत छोटी है और पूरी तरह मुझ पर निर्भर है। मैंने अपना वचन तोड़ा है, लेकिन मैं अपने बच्चे के बिना नहीं रह सकती। कृपया मुझे क्षमा कर दें।

डॉ. आरती और उसकी बहन स्वाभाविक रूप से परेशान थीं। उन्होंने बच्चे के अपने परिवार में स्वागत की सारी तैयारियाँ कर ली थीं। लेकिन रोती हुई मंजुला को देखकर उन्होंने महसूस किया कि शायद मातृत्व हमेशा समझौतों का जवाब नहीं दे सकता।
  बच्ची लगातार अपने माँ-बाप को ढूँढ रही थी। उसे जहाँ जगह मिलती वह सो जाती। एक दिन एक दयालु आदमी ने उसकी करुणाजनक स्थिति को देखा और उसे नेत्रहीन विद्यालय ले गया। वह बच्ची कोई नाम या पता नहीं बता पा रही थी, जिससे उसके माँ-बाप का पता लगाया जा सके।       

मैंने यह कहते हुए अपना उद्बोधन समाप्त किया कि कई बार मैंने देखा है कि एक माँ अपने बच्चे के लिए कुछ भी कुरबान करने को तैयार रहती है। मातृत्व की भावना प्राकृतिक है। हमारी संस्कृति इसका महिमामंडन करती है और एक माँ का सम्मान किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा होता है। तालियाँ बजाकर मेरी प्रशंसा की गई और मैं भी अपने उद्बोधन से संतुष्ट थी।
मैं मंच से नीचे उतरी और पास में ही मीरा को खड़ा देखा। वह नेत्रहीन थी और नेत्रहीनों के एक विद्यालय में अनाथ बच्चों को पढ़ाया करती थी। वह इस संगोष्ठी में अपने विद्यालय का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मैं उसे बहुत अच्छी तरह से जानती थी। क्योंकि मैं अक्सर उसके स्कूल जाया करती थी

मैं उसके पास गई और बोली- 'तुम कैसी हो मीरा?' वह एक क्षण चुप रहकर बोली- 'मैं ठीक हूँ, मैडम क्या आप मेरी मदद करेंगी?'

'मुझे बताओ क्या बात है?'

'अहमद इस्माईल मुझे यहाँ से लेकर मेरे स्कूल पर छोड़ने वाले थे, लेकिन अभी मेरे सेलफोन पर उन्होंने बताया कि वे ट्रैफिक जाम में फँस गए हैं और उन्हें आने में समय लग सकता है। क्या आप मुझे मेरे स्कूल तक छोड़ देंगी?' अहमद इस्माईल उस नेत्रहीन विद्यालय के ट्रस्टी थे।

क्या गरीबी मातृत्व से ज्यादा मजबूत है? मेरे पास उसके लिए कोई जवाब नहीं था, मैं उसका हाथ अपने हाथ में पकड़े रही। मैंने महसूस किया कि इस संसार में सब तरह की माँएँ हैं। इस संसार में उतनी तरह की माँएँ हैं, जितने कि इस धरती पर आदमी। और गरीबी अत्यंत निराशाजनक कार्यों के लिए प्रेरित कर सकती है।

  आँसुओं के बीच उसने उत्तर दिया, 'क्योंकि मैं ही वह आधी अंधी लड़की हूँ। अब मुझे बताओ मेरी माँ मुझे ऐसे कैसे छोड़ सकती थी। उसने मुझे एक पैकेट बिस्किट देकर ठग लिया। उस मातृत्व का क्या हुआ जिसकी आप इतनी वकालत करती हैं?      
मीरा का विद्यालय मेरे ऑफिस के रास्ते में ही था इसलिए मैं तैयार हो गई। कार में मैंने महसूस किया कि वह एकदम चुपचाप है इसलिए मैंने बातचीत शुरू की।

'मीरा आज की संगोष्ठी कैसी थी? क्या तुम्हें मेरा भाषण पसंद आया।' मैं एक सामान्य विनम्रता भरे उत्तर की आशा कर रही थी जैसे कि हाँ, बहुत बढ़िया था। लेकिन मीरा ने उत्तर दिया- 'मुझे आपका भाषण पसंद नहीं आया। इतनी रूखी होने के लिए क्षमा चाहती हूँ। लेकिन जीवन हमेशा ऐसा नहीं होता।' मुझे झटका लगा। मैं इसका कारण जानना चाहती हूँ। इसलिए मैंने उससे पूछा- 'मुझे बताओ मीरा तुमने ऐसा क्यों कहा।' मैंने जो कहा वह एक सच्ची घटना थी, न कि कहानी। कई बार सच कल्पना से अधिक अपरिचित होता है।

मीरा ने ठंडी साँस भरी, 'हाँ कई बार सच कल्पना से भी अधिक अपरिचित होता है।' यही तो मैं आपसे कहना चाहती हूँ। मैं आपको एक और कहानी सुनाना चाहती हूँ। एक बार एक पाँच साल की बच्ची थी, जिसकी आँखों की आधी रोशनी चली गई थी। उसके माँ-बाप दोनों मजदूर थे

वो बच्ची अक्सर शिकायत करती कि वो ठीक से देख नहीं पाती लेकिन वो उससे कहते कि ऐसा ठीक से न खाने-पीने के कारण है और जब उनके पास पैसे होंगे तो वे उसे डॉक्टर के पास ले जाएँगे। अंततः एक दिन वे उसे डॉक्टर के पास ले गए। उसने बताया कि उसका ऑपरेशन करना पड़ेगा। जिसमें ढेर सारे रुपयों की जरूरत पड़ेगी अन्यथा वह धीरे-धीरे अँधी हो जाएगी

उसके माँ-बाप ने आपस में कुछ बात की और उसे लेकर एक बस स्टैंड पर गए। उन्होंने कहा- बेटा तुम बिस्किट खाओ, हम पाँच मिनट में वापस आते हैं।

जीवन में पहली बार उस लड़की ने बिस्किट का पूरा पैकेट पाया था। वह बेहद खुश हुई। और बैठकर उसका आनंद लेने लगी। अपनी आधी अंधी आँखों से उसने अपनी माँ को लाल साड़ी के लाल पल्लू को भीड़ में खोते देखा। दिन आगे बड़ा, ठंड होने लगी और उसने महसूस किया कि अँधेरा हो चुका था। वह अकेली असहाय और डरी हुई थी। उसने अपने माँ-बाप को आवाज लगाना शुरू कर दी। वह गाड़ियों में अपने माँ-बाप को ढूँढ रही थी अपनी माँ के उस पल्लू के सहारे

'उसके बाद क्या हुआ?'

वो बच्ची लगातार अपने माँ-बाप को ढूँढ रही थी। उसे जहाँ जगह मिलती वह सो जाती। एक दिन एक दयालु आदमी ने उसकी करुणाजनक स्थिति को देखा और उसे नेत्रहीन विद्यालय ले गया। वह बच्ची कोई नाम या पता नहीं बता पा रही थी, जिससे उसके माँ-बाप का पता लगाया जा सके

उसने अधीक्षिका से अनुरोध किया कि यदि कोई माँ-बाप बच्चे पर दावा जताने सामने आते हैं तो उनकी परीक्षा लेकर उन्हें सौंप दिया जाए, लेकिन कोई उसे देखने नहीं आया। बच्ची ने कई सालों तक अपनी माँ का इंतजार किया और एक दिन उसकी सारी उम्मीदें समाप्त हो गईं।

मैं यह देखने के लिए मीरा की ओर मुड़ी कि क्या वो रो रही है और मैंने पाया कि ऐसा ही था। हालाँकि मैं अपने हृदय में उत्तर जान चुकी थी, मैंने उससे पूछा कि 'मीरा तुम उस बच्ची के बारे में इतनी विस्तार से कैसे जानती हो?'

आँसुओं के बीच उसने उत्तर दिया, 'क्योंकि मैं ही वह आधी अंधी लड़की हूँ। अब मुझे बताओ मेरी माँ मुझे ऐसे कैसे छोड़ सकती थी। उसने मुझे एक पैकेट बिस्किट देकर ठग लिया। उस मातृत्व का क्या हुआ जिसकी आप इतनी वकालत करती हैं?