जानिए, क्या-क्या करती है एक नारी अपनी 'सुरक्षा' के लिए....
सदियों से स्त्री ने सवाल नहीं किए, उससे जुड़े सवाल स्वत: ही सतह पर आ जाते हैं और जवाब होकर भी सवालों का सामना नहीं कर पाते। सवाल स्नेह का, सम्मान का और सबसे अहम सुरक्षा का...। कई बार स्त्री स्वयं नहीं जानती कि वह किससे डर रही है, उसे डराने वाला कौन है? उसे सुरक्षा किससे चाहिए? यह जो अदृश्य भय का भूत है, वह इन दिनों इस कदर विकराल हो रहा है कि सुरक्षा और स्वतंत्रता के तमाम दावों से हवा निकल गई है।
नन्ही बच्चियां, किशोरियां, लड़कियां, युवतियां, महिलाएं, प्रौढ़ाएं, वृद्धाएं....वर्गों में बंटी हर नारी इन दिनों ना जाने किससे इतनी क्यों आतंकित है कि वह हर मोर्चे पर अकेली संघर्ष करते हुए भी स्वयं को लेकर कहीं कोई एक आड़, एक छांव, एक सुरक्षा, कोई एक संबल, कोई एक सहयोग और कोई एक सहारा अपने साथ लेकर चलती है.... तो क्या हम यह सोचें कि यह प्रगतिशील देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है... या इसे समझदारी, सतर्कता या समय की जरूरत मानें या इस बात को लेकर स्यापा मनाते रहे कि हम आज भी इतनी भयभीत क्यों हैं?
आइए जानते हैं कि अपनी सुरक्षा के मद्देनजर गांव और छोटे शहरों की लड़कियां क्या कुछ उपाय आजमा रही हैं जबकि वे यह भी नहीं जानती कि क्या सचमुच इन उपायों में उसकी संपूर्ण सुरक्षा निहित है?
* किस्सा 1 :अनुषा शर्मा, स्वाति यादव, सिम्मी बिनवाल, श्रेया चौहान, स्नेहा सोलंकी, परिधि पाटीदार, विशाखा परमार, जूही कर्मा यह ग्रुप हैं उन सखियों का जो इंदौर शहर में नौकरी और पढ़ने के लिए आती हैं। इनकी आपस में जान-पहचान ही साथ आने और साथ जाने में हुई है। रोज जल्दी सुबह गांव से महू तक आना फिर महू से इंदौर के लिए बस पकड़ने की भागमभाग में अपने आपको लेकर भी इन्हें सतर्क रहना होता है।
वापस घरौंदे की और लौटने में अक्सर सांझ का अंधेरा बढ़ जाता है और साथ ही बढ़ जाती है इनके दिल की धड़कन..एक तरफ इनकी दूसरी तरफ परिवार वालों की ... घर से लगातार आते फोन इन्हें खिजा देते हैं क्योंकि इनकी अभी पहली प्राथमिकता है बस या ट्रेन का मिलना, फिर उसमें सीट मिलना और फिर सीट के पास वाली सवारी का 'सही' होना.. इन्हीं एक समान परेशानियों को इनमें से चार लड़कियों ने बातों-बातों में आपस में शेयर किया। फोन नंबर के साथ परस्पर विश्वास हासिल किया और बना लिया एक व्हॉट्स एप ग्रुप। धीरे-धीरे 4 और सखियां आ जुड़ीं।
अब यह ऑफिस या कॉलेज से निकलने से पहले एक दूजे से संपर्क कर लेती हैं और लौटते समय सब साथ में होती हैं। कई बार तो किसी एक के लिए बाकी सखियां इंतजार भी कर लेती हैं लेकिन नियम में इतनी शिथिलता रखी है कि अगर कोई एक को समय पर अच्छी बस और अच्छी सवारी मिल जाए तो वह मैसेज ड्रॉप करके निकल सकती है। लेकिन रात तक सब एक दूजे से बात कर ही लेती हैं। डिजिटल इंडिया के युग में तकनीक की इस मजबूती ने उन्हें भी 'मजबूती' दी है।
25 वर्षीया स्नेहा सोलंकी बताती है, '' अब हमारे परिवार को भी शाम ज्यादा होने पर इतनी फिक्र नहीं रहती है। और सबसे बड़ी बात तो हम लोगों का आना-जाना आसान हुआ है। जब मैं अकेली आती थी तब एक मनचला कई दिनों तक पीछे आता रहा, मैंने ध्यान नहीं दिया पर सच कहूं तो बहुत डर लगता था... जब से हम लोगों का ग्रुप बना है, वह अपने आप गायब हो गया।
23 वर्षीया विशाखा परमार जहां से बस पकड़ती थीं वहां सामने शराब की दुकान है और अक्सर शराब पिए हुए अजीब से लोगों से सामना करना पड़ता था। इस ग्रुप के बनने से उसने अपना बस में चढ़ने का कोना बदल लिया है- वह कहती है- थोड़ा सा चलना पड़ता है पर मैं जानती हूं कि यहां मुझे सिम्मी और श्रेया मिलेगी और हम तीनों मिलकर बस में चढ़ेगें।
इस ग्रुप का नाम है 'डेली अप-डाऊन फ्रेंड्स...' 27 वर्षीया परिधि पाटीदार थोड़ी क्रिएटिव है और वह बहुत जल्दी इस ग्रुप का अच्छा सा नाम रखने वाली है। फिलहाल इंदौर के आसपास के गांवों से आ रही यह सखियां अपने करियर के साथ-साथ सुरक्षा को लेकर चौकन्नी हैं और चाहती हैं कि इस तरह के आइडिया और लड़कियों तक पहुंचना चाहिए किंतु तस्वीरें खिंचवाने में उनकी झिझक कायम है। वह खिलखिलाकर कहती है- हमारा नाम ही काफी है मैडम..
* किस्सा 2 : मेरे सामने बैठी है वर्किंग होस्टल में रहने वाली हेमा चौरसिया। नाजुक सी उम्र में उसने बड़े बुरे दिन देखे हैं। 18 वर्ष में उसकी शादी गांव के ही पान की दुकान चलाने वाले चंदन से हुई। शराब, तंबाकू और दूसरी बुराइयों की लत ने चंदन को साल भर से अधिक जीवन जीने की अनुमति नहीं दी। लिहाजा हेमा को विधवा और अपशकुनी जैसे लांछन गांव और समाज से मिले और उसे घर भेज दिया गया। हेमा ने अपनी पढ़ाई पूरी करने की ठानी पर ना घर से सहयोग मिला ना ससुराल से... कारण कि हेमा ने विधवाओं के लिए निर्धारित नियमों को मानने से इंकार कर दिया...
हेमा रूंधे गले से बताती है- मुझे सफेद साड़ी पहनने और बिंदिया न लगाने के लिए दबाव बनाया गया ... मैंने कुछ समय माना भी...जब मैंने पास के गांव में पढ़ाने की नौकरी की.. तो देखा कि लोग मुझ पर दया दिखाने के बहाने नजदीकी बढ़ाने की कोशिश करने लगे हैं तो खुद की सुरक्षा के लिए मैंने मांग में सिंदूर लगाना, मंगलसूत्र पहनना और बिछिया पहनना शुरू कर दिया। दोनों परिवार के लोग बहुत नाराज हुए। तंग आकर मैंने गांव ही छोड़ दिया। मैं किस-किस को समझाती कि ऐसा मैं क्यों कर रही हूं। यहां इंदौर में 4 साल हो गए हैं। गांव से भाई आता है कभी-कभी मिलने।
''पर आपको यह क्यों लगा कि सुहागनों की तरह रहने में सुरक्षा है?''
''यही होता है दीदी, आपको नहीं पता... बाहर निकलते हैं तो दस तरह की नजरों से बचने के लिए यह सब करना पड़ता है। फालतु के लोग अपने पास नहीं आते हैं मांग में सिंदूर देखकर।
''पर अभी तो पूरी जिंदगी पड़ी है कोई मिल भी तो सकता है अच्छा साथी.. इस तरह तो कोई कभी भी साथ नहीं आएगा... ''
'' नहीं, मुझे अब किसी की जरूरत नहीं... शराबी इंसान के साथ इतना कुछ झेला है कि शादी करने की तो अभी सोचती भी नहीं.. पर हां खुद को बचाकर रखने में मुझे यह मंगलसूत्र-बिंदिया-बिछिया अच्छी लगती है। यहां सिर्फ होस्टल वालों को और मेरी खास सहेलियों को पता है। बाकी मैं ज्यादा बात किसी से करती नहीं ... बीएड हो गया है एमएड कर रही हूं''
है भगवान... यह है सुरक्षा का दूसरा उपाय... किस युग में जी रहे हैं हम...? अपनी खुद की पहचान बनानी है तो भी प्रतीकों से मुक्ति नहीं... मंगलसूत्र-बिंदिया-बिछिया भावनात्मक बंधनों के लिए है जिसे एक स्त्री अपनी इच्छा से धारण करती है रिवाजों के आंचल तले सुहागन होने की गर्विता होकर... लेकिन यह क्या कि इन्हें इसलिए पहनना है कि कोई अकेली ना समझ लें.. जीवन इतना आसान भी नहीं है.. कितने-कितने स्वांग रचना होते हैं इस जिंदगी को जीने के लिए चाहे-अनचाहे...
किस्सा 3 : बड़ा छोटा सा है यह किस्सा। मेरी सहेली मीरा की भांजी बबली अपनी सखियों के साथ सुरक्षा का ज्ञान बांट रही है। '' पता है मैं तो पर्स में लाल मिर्च का पावडर और रेजर ब्लैड हमेशा रखती हूं। कारण- बस इसलिए कि रात में अक्सर अकेले आना-जाना पड़ता है तो पापा कहते हैं होशियारी से रहने में कोई बुराई नहीं है।''
एक आवाज- पर मैं तो कराटे जानती हूं... दूसरी आवाज- तू तो है भी इतनी लंबी-चौड़ी कि एक हाथ मारे तो अगला चारो-खाने चित्त.. हम जैसी दुबली-पतली को सोचना पड़ता है...
यह उम्र है शोखियों की, हंसी की, खिलखिलाहट की.... पर इनमें ना जाने किस दौर की कड़वी नजर ने यह चिंता डाल दी है कि पर्स में लाल लिपस्टिक हो ना हो लाल मिर्च जरूर हो....
क्या सचमुच व्हॉट्स एप ग्रुप, मंगलसूत्र-बिंदिया-बिछिया और लाल मिर्च हमें बचाते हैं? यह महानगर की बालाएं नहीं है छोटे शहरों और गांव की नवविकसित कोंपलें हैं...जो ना जाने क्यों, ना जाने किससे, ना जाने किसलिए भयभीत हैं, आतंकित हैं। कहीं अकेले आने-जाने का भय है, कहीं अकेले होकर भी अकेले ना दिखने की जद्दोजहद है और कहीं अकेले में कोई अनहोनी ना हो जाए उससे निपटने के उपक्रम है... यह तीनों दास्तां इसी देश की हैं...सुरक्षा के यह उपाय क्या कोई उम्मीद जगाते हैं या उदास कर देते हैं। चौंकाते हैं या चिढ़ाते हैं।
स्त्री की रचना से पहले कभी ब्रह्मा ने भी नहीं सोचा होगा कि उसका निर्माण जितनी सहजता से उन्होंने किया है, वास्तव में विकास, संरक्षण और स्वतंत्र होना उतना ही मुश्किल होगा।
कबीर कह गए हैं-
''देह धरे का दंड है सब काहू पै होय
ज्ञानी भुगतै ज्ञानकरि मूरख भुगतै रोय....
पर जाने क्यों लगता है यह ''देह धरे का दंड'' हम नारियों के हिस्से में ही अधिक आया है...