तीन सगी बहिनों का एक साथ थल सेना में चुना जाना, स्वतंत्र भारत की एक ऐतिहासिक और विस्मयकारी घटना है, जिससे हमारे भारतीय सोच-विचार के पारंपरिक ढांचे में सशक्त व सकारात्मक हस्तक्षेप होना सुनिश्चित है। स्त्रियों को शारीरिक शक्ति के स्तर पर पुरुषों से अशक्त समझा जाता रहा है, किन्तु हम देखते हैं कि इधर इस यथास्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है और स्त्रियाँ उन क्षेत्रों में भी स्वरुचि, हिस्सेदारी अर्जित करने लगी हैं, जो उनके लिए कभी सर्वथा वर्जित समझ लिए गए थे। जाहिर है इस तरह की समझ का विकास एक तरफा ही था, क्योंकि इस निर्णय तक पहुँचने वाला निर्णायक मंडल निःसंदेह पुरुष वर्चस्ववादी ही था।
हमारे देश ने सन् 1991 में स्त्रियों की सैन्य भर्ती का सर्वथा पहली बार प्रगतिशील फैसला लिया था, ऐसा नहीं है कि इससे पहले भारतीय सेनाओं में स्त्रियाँ सम्मिलित नहीं होती थीं। सन् 1991 से पहले तक उनकी सेवाएँ आर्मी, मेडिकल कोर तक ही सीमित थीं, अर्थात तब उन्हें सेना सेवा में तो शामिल मान जाता था, किन्तु बकायदा सैन्य जिम्मेदारियों से मुक्त रखा जाता था। स्त्रियों की सेवाएँ तब सैनिकों की चिकित्सा और नर्सिंग आदि से आगे नहीं जाती थीं।
इधर सन् 1992 से प्रारंभ हुई 'वूमेन स्पेशल इंट्री स्कीम' के अंतर्गत स्त्रियों के लिए विभिन्न परीक्षाओं का प्रावधान कर दिया गया है। याद रखा जा सकता है कि इस स्कीम के अंतर्गत संपन्न होने वाली विभिन्न परीक्षाओं की वरीयता सूची के आधार पर ही स्त्रियों का सैन्य कमीशन के लिए चयन सुनिश्चित किया जाता है। सर्वांगीण ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े लखीमपुर खारी के शिवपुरी ग्राम में रहने वाली तीन बहादुर बहिनों ने एक साथ सैन्य कमीशन प्राप्त कर भारतीय स्त्री संसार के सम्मान की नितांत नई परिभाषा का अविष्कार कर दिखाया है। यह घटना रोमांचक भी है और अनुकरणीय भी। राखी चौहान, रोली चौहान और रुचि चौहान की उम्र इस समय क्रमशः चौबीस, बाईस और बीस वर्ष है, लेकिन शत्रु सेनाओं को परास्त करने का उनका साहस अदम्य है।
बहुत संभव है कि हमारे देश का यह पहला परिवार है, जिसका इकलौता पुत्र मृदुल कुमारसिंह सेना में कैप्टन है और अब इसी परिवार की तीनों पुत्रियाँ भी सेना में शामिल हो गई हैं। मृदुल कुमारसिंह को कारगिल कार्रवाई के दौरान ऑपरेशन विजय में बहादुरी के लिए सैन्य सम्मान मिल चुका है। अन्यथा नहीं है कि इन तीन सगी बहिनों राखी चौहान, रोली चौहान और रुचि चौहान के लिए प्रेरणास्रोत उनका सगा भाई कैप्टन मृदुल कुमारसिंह ही रहा, जबकि इस प्राथमिक प्रेरणा के अतिरिक्त उनके माता-पिता का सहयोग भी एक बड़ा संबल साबित हुआ। इस एक आश्चर्यजनक घटना का दूसरा आश्चर्यजनक पक्ष यह भी है कि इन चारों भाई-बहिनों के पिता मंजुसिंह चौहान की दिली ख्वाहिश थी कि वे सेना में जाते, किन्तु तीन-तीन बार एस.एस.बी की अनिवार्य परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के बाद भी अपने अंतिम चयन में वे असफल रहे। इस तरह मंजुसिंह चौहान सेना में जा पाने से वंचित रह गए और उनका सपना पीछे छूट गया, किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। मंजुसिंह चौहान ने अपने अधूरे सपने को पूरा करने का संकल्प लिया और अब उनके एक मात्र पुत्र तथा तीनों पुत्रियों ने अपने पिता का सपना साकार कर दिखाया।
ये तीनों सगी बहिनें उस परीक्षा में चयनित की गई हैं, जिसमें देशभर की लड़कियों में से सिर्फ इक्यावन लड़कियों को ही चुना जाता है। ये तीनों सगी बहिनें सेना की अलग-अलग शाखाओं में जाना चाहती हैं। राखी चौहान यदि ई.एम.ई सैन्य शाखा में जाना चाहती है, तो रोली चौहान की इच्छा ऑर्डिनेंस या आपूर्ति सैन्य शाखा में जाने की है, जबकि सबसे छोटी बहिन रुचि चौहान की रुचि और उसका एकमात्र संकल्प सिग्नल शाखा में जाने से इतर नहीं है। इन तीनों सगी बहिनों ने एक साथ सैन्य कमीशन पाकर जो उपहार व उपलब्धि अपने माता-पिता के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, वह वाकई रोमांचकारी, अविस्मरणीय व अद्वितीय है। जहाँ तक भी संभव हो सके इस उपहार व उपलब्धि का स्वागत, सत्कार और सम्मान किया जाना चाहिए, ताकि हमारे समकालीन समाज में गहरे तक पैठ गई उस जड़ता का सर्वनाश हो, जो स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी करने से पीछे धकेलती है। यदि सामाजिक संकल्प शक्ति असंभव नहीं है, तो किसी भी जड़ता का सर्वनाश किया जाना भी असंभव नहीं है।
यह देखना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जहाँ एक तरफ भारतीय स्त्रियाँ विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में झंडे गाड़ रही हैं, वहीं राजनीति, खेलकूद और पर्वतारोहण से लगाकर पत्रकारिता सूचना प्रौद्योगिकी और सैन्य सफलताएँ अर्जित करने में भी बुलंदियाँ छू रही हैं। वे शिक्षा के क्षेत्र में अव्वल आती हैं, वे सौंदर्य के क्षेत्र में अव्वल आती हैं, वे खेलकूद के क्षेत्र में अव्वल आती हैं, वे चूल्हा-चौका से लेकर राजनीति के क्षेत्र तक में अव्वल आती हैं। सचमुच वे अव्वल ही नहीं आती हैं, बल्कि अपनी सामर्थ्य और क्षमताओं का सक्षम-साक्ष्य भी प्रस्तुत करती हैं। यह जानकर किंचित् हैरानी हो सकती है कि मनोवैज्ञानिक जाँच, समूह परीक्षा तथा व्यक्तिगत परीक्षा के बाद सैन्य अधिकारी बनने के लिए जब इन तीनों सगी बहिनों में पंद्रह जरूरी खास खूबियाँ भी पहचान ली गईं, तो पिता मंजुसिंह चौहान का सकारात्मक सोच और सकारात्मक समर्पण निःसंदेह वात्सल्य के व्यवहारिक व व्यापक शिखर को स्पर्श करने में भी सफल हो गया।
कृपया गौर करें कि जब हम सब भारतीय होली खेल रहे थे, ये तीनों सगी बहिनें चेन्नई स्थित ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी के लिए रवाना हो चुकी थीं, उन्हें वहाँ छह माह का कठोर प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। इसके बाद इन तीनों सगी बहिनों को सैन्य कमीशन और सैन्य रैंक प्राप्त हो जाएँगे। अन्यथा नहीं है कि चुनौतियाँ आकस्मिक होती हैं, जबकि उन चुनौतियों का सामना करने का संकल्प आकस्मिक नहीं होता है। पिता के संस्कार और माँ के समर्पण ने जो संभव कर दिखाया, वह बेमिसाल है। गुजारिश सिर्फ इतनी भर है कि सिर्फ इतना गर्व से कह दीजिए कि ये तीन सगी बहिनें वाह, क्या कहने?