सुपर वूमन : खिताब या खुशी

सपना बाजपेई मिश्रा
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इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दो दशकों में हिन्दुस्तान की आधी दुनिया यानी स्त्रियों ने आँधी-तूफान की भाँति तरक्की करके समाज में अपनी एक अलग पहचान बना ली है व हर क्षेत्र में स्वयं को साबित कर रही हैं। आज की शहरी युवा महिला पढ़ी-लिखी है, करियर ओरिएंटेड है, पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। घर हो या ऑफिस हर जगह उसे बराबरी के अधिकार दिए जा रहे हैं।

उसकी लाइफस्टाइल के तमाम पहलुओं पर गौर फरमाने के बाद ही आधुनिक भाषा में उसे सुपर वूमन का खिताब हासिल हो चुका है, जो इससे पहले किसी सदी की महिलाओं को नहीं मिला। भारतीय महिला इन दिनों विकास के सुनहरे दौर से गुजर रही है, मगर क्या वाकई यह उसकी आजादी का सर्वश्रष्ठ युग है या आजादी के नाम पर उन्हें भ्रमित किया जा रहा है या वे स्वयं ही भ्रमित हो रही हैं?

इसमें कोई शक नहीं कि आज की महिलाएँ पहले की तुलना में कहीं ज्यादा कुशाग्र, मेहनती और करियर के प्रति जागरूक हो चुकी हैं। वे अपनी जीवनशैली अपनी सहूलियत के अनुसार चलाना चाहती हैं। महिलाओं की इसी हसरत ने उन्हें आजादी के पर लगाकर आसमान में उड़ना सिखा दिया है जिसमें उनका दायरा घर की चहारदीवारी तक सीमित न रहकर बाहरी दुनिया तक विस्तृत होता जा रहा है। लेकिन क्या इस विस्तृत होते दायरे ने वाकई महिलाओं को आजाद जिंदगी जीने की समझ दी है या आजादी व विकास के नाम पर महिलाओं के कंधे पर जिम्मेदारियों का बेतुका बोझ ही दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है! ऐसे में सुपर वूमन के खिताब की खुशी मनाई जाए या मातम?

आज की महिला दो दशक पहले की महिलाओं की तुलना में ज्यादा आत्मनिर्भर हैं। उनके पास पहले की तुलना में कहीं ज्यादा अधिकार हैं। इन्हीं अधिकारों के बल पर महिलाएँ परंपरावादी भारतीय समाज में अपनी एक अलग जगह बना पा रही हैं। एक समय महिलाओं को सिर्फ घर संभालने योग्य ही समझा जाता था। इसके उलट आज की सुपर वुमन घर और बाहर दोनों ही मैदानों में बराबर योगदान देती है। वह एक परफेक्ट माँ है तो एक परफेक्ट कर्मचारी भी है। वह आदर्श पत्नी भी है तो बेहतर सहकर्मी भी।

लेकिन इन सबके बीच आजादी के नाम पर महिलाएँ अपने कंधों पर जरूरत से ज्यादा बोझ ढो रही हैं। खुद को सामंजस्य व आधुनिकता की मिसाल साबित करने के फेर में वे तनाव व उलझनों के बीच फँसी हैं। सभी को संतुष्ट करने की चाहत में सुपर वुमैन खुद को भूलती जा रही है और स्वयं के लिए कुछ पल भी नहीं निकाल पा रही। क्या इस सच को देख पा रहे हैं हम?

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