महिला दिवस : परिस्थितियां बदली, पर नजरिया वही है...

पूजा भारद्वाज 
स्त्री...युगों ये बहती आ रही धारा सी, हर युग में उसकी स्थिति, परिस्थति बदली है। लेकिन उसे बेहतर शब्द के दायरे में रखना शायद न्याय नहीं। बीते सालों में वक्त के साथ-साथ बदलते जमाने में बहुत बदलाव आया है। पुरानी दकियानूसी सोच को त्यागकर समाज ने नारी को घर की चार दीवारी से बाहर निकलकर अपने सपनों को पूरा करने की आजादी दे दी है। पहले महिलाओं का दायरा सिर्फ घर और परिवार तक ही सीमित था, लेकिन आज वह दायरा काफी बढ़ गया है। हां यह बात सच है कि आज हर स्त्री, पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही है, परंतु आपको शायद अजीब लगे कि यह एक अधूरा सत्य है।

वास्तव में स्त्री को मिली आजादी आज भी अधूरी ही है, क्योंकि उसकी परिस्थि‍तियां जरूर बदली हैं लेकिन स्थि‍ति और उसके प्रति सोच नहीं। आजादी और आत्मनिर्भरता के नाम पर उसने बाहर निकलकर सिर्फ अतिरिक्त भार ग्रहण किया है। ऑफिस या काम से वापस घर लौटते स्त्री और पुरुष के प्रति अलग-अलग सोच और उनकी स्थि‍तियों को देखकर यह कहना उचित लगता है।
 
बाहर भले ही महिलाएं अपना ओहदा और सम्मान बढ़ा पाई हों, लेकिन जरूरी नहीं कि परिवार की सोच और नजरिया भी उनके प्रति वैसा ही हो जैसा कि बाहरी दुनिया में। घर मेंउसके प्रति सोच और उसकी स्थि‍ति में आज भी ज्यादा कोई अंतर नहीं आया है। एक ही काम को करने वाले स्त्री पुरुष जब अपने घर पहुंचते हैं, तो जहां पुरुषों के प्रति विशेष भाव होता है, जैसे - ऑफिस से आए हैं थक गए होंगे। गर्म चाय नाश्ता और अलग-अलग तरह से उन्हें राहत देने का प्रयास किया जाता है। होना भी चाहिए। 
 
लेकिन महिला कामकाजी हो तब भी और न हो तब भी, उसकी जिम्मेदारियां जस की तस है। महिलाओं के लिए देखभाल या चिंता का भाव कम ही दिखाई देता है, जो कि अनिवार्य है। उसे घर आते ही गर्म चाय या नाश्ता परोसना नहीं बल्कि बनाना होता है, जो उसकी जिम्मेदारी है। किसी और का सोचना तो दूर, अपनी जिम्मेदारियों और व्यस्तताओं के बीच वह खुद यह नहीं सोच पाती कि शायद वह भी थक गई होगी। कार्यस्थल से लौटते ही बच्चे, भोजन, बड़ों की देखभाल जैसी जिम्मेदारियों के अलावा कई छोटी-छोटी चीजों की उसे तुरंत चिंता करनी होती है।
 
यहां बात यह नहीं है कि महि‍लाओं को यह नहीं करना चाहिए। एक बहू, पत्नी, और मां के रूप में यह उसका कर्तव्य है, जिसके प्रति वह समर्पित है। परंतु बात उसे सोच की है जो स्त्र‍ियों को आज बाहर निकलने की छूट तो देती है लेकिन उसकी जिम्मेदारियों को साझा करना नहीं चाहती।
 
आज के युग में जब महिलाएं पुरुषों की हर मायने में बराबरी कर रही हैं, हमें समझने की जरुरत है कि जैसे स्त्र‍ि‍यों ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके कार्यक्षेत्र को संभाला है वैसे ही पुरुष भी घर परिवार की छोटी-छोटी जिम्मेदारियों में स्त्री का साथ निभाए। वे उन्हें उनकी मशीनी जिंदगी से बाहर निकाले क्योंकि तथी एक स्वस्थ और खुशहाल समाज का निर्माण हो सकता है। अब वक्त है उसे देवी से ज्यादा इंसान के रूप में समझने का...

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