...तो क्या जिम्मेदारी प्रधानमंत्री लेंगे?

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एक सामान्य भारतवासी की जिंदगी में आत्मगौरव और राष्ट्रभक्ति प्रदर्शन के क्षण बहुत कम ही आते हैं और जब ऐसा होता है तो वह जाति, समाज, प्रदेश और ऊँच-नीच के सभी बंधनों को तोड़कर सड़कों पर तिरंगा लेकर निकलता है, फिर चाहे वो विस्फोटक क्रिकेट हो या परमाणु विस्फोट। शेष बीच के दिनों में वह 2-जी स्पेक्ट्रम, सीडब्ल्यूजी जैसे घोटालों से घिरा रहता है। फिर यही एक मौका आया है- आत्मगौरव का, राष्ट्रगौरव का और इसके लिए धोनी के धुरंधर बधाई के पात्र हैं।

जीत की चाह लिए पूरा हिन्दुस्तान मोहाली के मैदान में उतरेगा और हो भी क्यूँ न, ऐसे सकारात्मक समाचार हर दिन नहीं मिलते। कभी मैं भी तो गर्व करूँ अपने देश पर और कहूँ अपने आपसे 'देखा मेरे भारत को...'। समस्या तब होती है जब बेगाने भी इस शादी में दीवाने हो जाते हैं। मोहाली के मंडप में मीडिया तो ठीक सरकार भी 'फुटेज' खाने में आतुर है। चौबीस घंटों के चैनलों के दो ही काम हैं- एक बात का बतंगड़ बनाना और दूसरा जन के मानस को हवा देना।

इस बुधवार के बंद में वे दोनों चीजें शामिल हैं- तो इसके व्यावसायिक उपयोग के लिए मीडिया परहेज क्यों करे! परंतु प्रधानमंत्री का आना और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण- क्या सोच है इसके पीछे? राजनीति और कूटनीति अपनी जगह है और खेल अपनी। प्रधानमंत्रीजी ने एक बार फिर अपरिपक्वता का परिचय देते हुए ऐसा किया है।

छह दशकों में दोनों देशों को करीब लाने के लिए समर्पित कितनी ही बैठकों में जो काम संभव नहीं हुआ, वह क्रिकेट के मैदान के शोरगुल में क्या होगा! इस लिहाज से प्रधानमंत्री का स्टेडियम में आना और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण की न तो कोई आवश्यकता थी न ही कोई औचित्य। हाँ, पाँच हजार पाकिस्तानियों को वीसा देने का निर्णय जरूर स्वागतयोग्य है, परंतु स्वयं सरकार की अदूरदर्शिता और अपरिपक्वता दर्शाता है, क्योंकि न तो स्वयं सरकार इतने कम समय में वीसा दे सकती है और न ही टिकट उपलब्ध हैं।

टिकटों की कालाबाजारी, महँगी यात्रा और चंडीगढ़, मोहाली में रहने की अनुपलब्धता की बाधाओं को पार कर अब दर्शकों को 'झेड' की श्रेणी सुरक्षा नियमों से भी गुजरना पड़ेगा। स्टेडियम में शीर्ष नेताओं के पहुँचने से दर्शकों को होने वाली असुविधा का खेद किसी को नहीं है। बहुत मेहनत के बाद दोनों टीमें इस मुकाम पर पहुँची हैं। यह कोई मामूली एक दिवसीय नहीं है। इससे इतिहास रचने वाला है। 1983 की टीम का हर सदस्य आज तक 'विश्वविजेता' के नाम से जाना जाता है।

पाकिस्तान से पिछली भिड़ंतों की तरह भी अगर मोहाली में मैदान गर्म होने लगे और अभद्र शब्दों का आदान-प्रदान हो तो क्या प्रधानमंत्रीद्वय के लिए शर्मनाक स्थिति नहीं होगी। या खिलाड़ियों को अपने हृदय स्पंदन को बाँधकर रखना पड़ेगा। क्या खिलाड़ियों पर इन दोनों शीर्ष नेताओं की उपस्थिति अतिरिक्त दबाव तो नहीं बढ़ाएगी! पाक खिलाड़ियों का पता नहीं, पर हमारे जाँबाज हमारी व्यवस्था और व्यवस्था प्रमुख का जरूर आदर करते हैं। ऐसे में उनका खेल अगर असहज या अस्वाभाविक होता है और भारत मुंबई में नहीं खेल पाता तो क्या मनमोहनसिंहजी इसकी जिम्मेदारी स्वीकार करेंगे!

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