महज सात साल के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में महेन्द्रसिंह वल्द पानसिंह धोनी ने एक ऐसा मुकाम हासिल कर लिया जिसे पाने का लोग केवल सपना देखते हैं लेकिन क्रिकेट के इस धुरंधर ने अपनी मेहनत, काबिलियत के बूते पर युवाओं को ये संदेश दिया है कि सपने किस तरह हकीकत में बदले जाते हैं। धोनी के कुशल नेतृत्व का ही ये चमत्कार है कि भारत आज 28 बरस बाद एक बार फिर विश्व चैम्पियन बना है।
19 फरवरी 2011 के दिन जैसे ही उपमहाद्वीप में विश्वकप का आगाज हुआ, वैसे ही करोड़ों उम्मीदें धोनी पर टकटकी लगाए रहीं और हरेक का बस यही ख्वाब था कि धोनी के धुरंधर अपनी जमीं पर खिताब का सेहरा बाँधे। धोनी ने वाकई यह कर दिखाया और अपनी नेतृत्व क्षमता से पूरी क्रिकेट बिरादरी कायल कर दिया।
धोनी में धैर्य है, प्रतिभा है और मैदान पर किस खिलाड़ी का कैसे उपयोग करना है, उन्हें अच्छी तरह से आता है। पूरे टूर्नामेंट में वे 'कूल कप्तान' के रूप में पेश आए और मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में मौका आने पर वे 'शेर की तरह भी गरजे' और छक्के के साथ भारत को विश्वकप दिलाकर 121 करोड़ लोगों के दिलों को खुश कर दिया।
राँची के इस हुनरमंद क्रिकेटर पर भाग्य की देवी किस तरह मेहरबान है, इसका अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने दोनों हाथों में दौलत और शोहरत बटोरी, युवाओं के आइकॉन बने और एक के बाद एक कामयाबी की नई इबारत लिखी।
उन्होंने भारत को ट्वेंटी-20 क्रिकेट में विश्व विजेता बनवाया, धोनी की कप्तानी में ही भारत वनडे की नंबर एक रैंकिंग पर पहुँचा और शनिवार को वह 10वें विश्वकप को जीतने में कामयाब रहा। फाइनल में 'मैन ऑफ द मैच' का पुरस्कार जीतना इस बात का सबूत है कि माही ने कितनी मेहनत की है और भारतीय क्रिकेट को किस मुकाम पर ला खड़ा किया है।
विश्वकप के फाइनल के प्रसंग पर धोनी के सात साल के संक्षिप्त क्रिकेट करियर पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है, उन्होंने ये मुकाम खुद की मेहनत के बूते पर हासिल किया, न तो कोई गॉडफादर था और न सिफारिश, उनका मूलमंत्र यही था 'जो भी काम करो, ईमानदारी और मेहनत से करो, ये भी याद रखो कि आपके काम से देश का कितना भला हो रहा है।'
धोनी की सबसे बड़ी खूबी यही देखने को मिली कि उन्होंने हर परिस्थिति में खुद को ढालने का प्रयास किया। 2007 में भारत को ट्वेंटी-20 का विश्व विजेता बनवाया, पहले आईपीएल में चेन्नई सुपर किंग को फाइनल में और तीसरे में चैम्पियन बनवाने के साथ ही अपनी कप्तानी में विदेशी जमीन पर कोई टेस्ट सिरीज नहीं हारी।
भारतीय क्रिकेट का कोहिनूर : दरअसल भारतीय क्रिकेट को धोनी के रूप में ऐसा 'कोहिनूर हीरा' मिला, जिसकी चमक समय के साथ-साथ और अधिक निखरी है। धोनी रफ्तार के बाजीगर हैं और उन्हें हर काम तेजी से करना पसंद है, फिर चाहे सड़क पर 20 लाख की बाइक चलाना ही क्यों न हो।
यादगार जीत के लम्हें दिए : धोनी की बाजुओं में गजब की ताकत और दिमाग के तंतु जबरदस्त नेतृत्व क्षमता का सबूत देते हुए कुलबुलाते रहते हैं, वे टीम के लिए रणनीति बनाते हैं और उसे अंजाम तक पहुँचाते हैं। ट्वेंटी-20 विश्वकप भारत की झोली में डालने के अलावा दक्षिण अफ्रीका में जाकर पहली टेस्ट जीत दर्ज करने जैसे ऐसे लम्हें हैं जो कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे। वानखेड़े स्टेडियम में 2 अप्रैल की रात को जो चमत्कारी पारी धोनी ने खेली उसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा।
छोटी उम्र में बड़ा कमाल : 7 जुलाई 1981 को राँची में जन्मे महेन्द्रसिंह धोनी 30 साल के पहले ही बहुत कुछ हासिल कर लिया है। उनके सामने खुला आकाश पड़ा था, उन्होंने पँख फैलाए और उड़ गए। आप ताज्जुब करेंगे कि सफलता के घोड़े पर सवार 'माही' ने जब अपने एक दिवसीय क्रिकेट करियर के बाद ट्वेंटी-20 क्रिकेट का पहला अंतरराष्ट्रीय मैच खेला तो वे शून्य पर आउट हुए जबकि पहले टेस्ट मैच में उन्होंने केवल 30 रन का ही योगदान दे सके। शुरुआती असफलता ने धोनी में न जाने ऐसी कौन सी खुन्नस भरी कि बाद में वे जलजला बनकर क्रिकेट बिरादरी पर छा गए।
धोनी की बेबाकी : बात तीन साल पहले की है, जब भारतीय टीम में आने वाला हर खिलाड़ी अपने हुक्मरान का हुकूम मानने के लिए तैयार रहता था लेकिन धोनी उनसे जुदा थे। उनके मुँह में भी जुबान थी और उन्होंने पाकिस्तान में खेले गए एशिया कप में मीडिया के सामने खुलकर बहुत ज्यादा क्रिकेट खेले जाने का मुद्दा उठाया था। हालाँकि उनकी ये बेबाकी क्रिकेट प्रशासकों को हजम नहीं हुई थी।
धोनी अपनी बात पर कायम रहे और तब उन्होंने श्रीलंका दौरे पर टीम चुनने से पहले ही खुद को बाहर रखने का निवेदन तक कर डाला था। युवा क्रिकेटर भारतीय टीम में आने के लिए जाने कितने जतन करते हैं और आने के बाद जाने का नाम नहीं लेते, ऐसे में धोनी में ही वो हौंसला था जो खुद को बाहर रखने की बात कहने की हिम्मत कर सकते थे।
'एम फैक्टर' का कमाल : धोनी के लिए 'एम फैक्टर' ने कमाल किया। उनके नाम की शुरुआत 'एम' से होती है। 'मीरपुर' में 19 फरवरी को जब विश्वकप का आगाज हुआ तो महेन्द्र सिंह धोनी की कप्तानी में भारत ने बांग्लादेश को हराकर अपना विजयी अभियान शुरु किया।'मोटरा' में भारत ने धोनी की कप्तानी में ऑस्ट्रेलिया को हराकर विश्वकप के सेमीफाइनल में प्रवेश किया।
फिर 'मोहाली' में भी एम फैक्टर महेन्द्र सिंह का साथ निभाता रहा और यहाँ पाकिस्तान को हराकर भारत फाइनल में पहुँचा। विश्वकप का फाइनल 'मुंबई' में खेला गया और यहाँ भी 'एम फैक्टर' का चमत्कार देखने को मिला, जिसमें गंभीर की 97 रनों की पारी के बाद महेन्द्र सिंह धोनी ने 79 गेंदों में 91 रनों की नाबाद पारी खेलकर भारत को चैम्पियन बनाने में अहम किरदार निभाया।
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती : धोनी ने अपने वनडे करियर का पहला मैच 23 दिसंबर 2004 को बांग्लादेश के खिलाफ ही खेला था और बिना कोई रन बनाए वे पैवेलियन लौटे थे। धोनी के सात सालाना क्रिकेट करियर की सबसे बड़ी चुनौती विश्वकप चूमना थी और आप देखिये कि इस चुनौती में भी वे 'पारस' की तरह चमके।
सर्वश्रेष्ठ टीम के सेनापति : धोनी को पूरा भरोसा था कि घरू दर्शकों के समर्थन और प्रत्येक खिलाड़ी के योगदान से वे यह कारनामा भी कर सकते थे। धोनी को मालूम है कि हर चार साल में आयोजित होने वाले विश्वकप को जीतने का इससे बढ़िया अवसर उन्हें नहीं मिल सकता था। आज वे एक विश्व चैम्पियन टीम के कप्तान हैं और उनके धुरंधरों ने ये साबित कर दिखाया कि सबसे आगे रहेंगे हिंदुस्तानी...
28 साल की कसक पूरी की : आज पूरे देश को उन्होंने जो यादगार पल दिए वो भुलाए नहीं भूलेंगे। भारत फिर से विश्व चैम्पियन बन गया और पूरे 28 साल की कसक 2011 में धोनी ने सुनहरी ट्रॉफी अपने हाथों में थामकर पूरी कर दी। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने भी इस मौके पर अपना खजाना खोला और विश्व चैम्पियन टीम के प्रत्योक खिलाड़ी को 1-1 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया। साथ ही सपोर्ट स्टाफ को भी 50-50 लाख रुपए मिलेंगे। धोनी के नायकों ने 'अमावस में उजियारा' कर दिया।