कहां है दक्षिण अफ्रीका के मूल खिलाड़ी

नेल्सन मंडेला को 1990 में जेल से रिहा किया गया। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का खात्मा हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट ने इसी वजह से उस पर पाबंदी लगा रखी थी।


पाबंदी हटी, तो दक्षिण अफ्रीका ने पहला दौरा भारत का करने का फैसला किया। भला मंडेला के खिलाड़ियों का पहला दौरा गांधी के देश से बेहतर कहां हो सकता था।
 
दक्षिण अफ्रीकी टीम 1991 में भारत आई। तीन वनडे मैच खेले गए। खूबसूरती यह कि पहला मैच कोलकाता में खेला गया और दक्षिण अफ्रीकी टीम ने मदर टेरेसा से भी मुलाकात की। क्रिकेट के रंगमंच पर किसी टीम का इससे बेहतर आगाज संभव नहीं था।
 
इन घटनाओं के बाद लगभग चौथाई सदी बीत चुकी है। दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट की दुनिया में जबरदस्त टीम बन चुका है। लेकिन जिस रंगभेद की वजह से उसके क्रिकेट पर बरसों प्रतिबंध लगा रहा, क्या वह खत्म हो पाया।
 
दक्षिण अफ्रीकी टीम में आज भी ज्यादातर श्वेत खिलाड़ी हैं। अश्वेत क्रिकेटर के तौर पर सिर्फ मखाया एनटीनी का नाम याद आता है। बहुत रिसर्च करने पर पता चलता है कि उनके अलावा चार और अश्वेत खिलाड़ियों ने दक्षिण अफ्रीका के लिए टेस्ट क्रिकेट खेला है। चार साल से टेस्ट टीम में कोई अश्वेत खिलाड़ी नहीं है।
 
दक्षिण अफ्रीकी आबादी में लगभग 80 फीसदी हिस्सा वहां के पारंपरिक अश्वेतों का है, जबकि ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देशों से जाकर बसे श्वेतों की संख्या 10 फीसदी से भी कम है। भारतीय और दूसरे समुदाय के लोग भी सदियों से दक्षिण अफ्रीका में रहते आए हैं। मंडेला की आजादी और रंगभेद खत्म होने के बाद दक्षिण अफ्रीका का समाज बदला है। गोरे काले की भावना खत्म हुई है। पिछले 20 साल में उसके सारे राष्ट्रपति काले ही हुए हैं। फिर इस तबके को क्रिकेट में जगह क्यों नहीं मिल पाती।
 
किसी जमाने में दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रीय टीम में अश्वेतों के लिए आरक्षण का नियम लागू करना पड़ा ताकि कम से कम एक अश्वेत खिलाड़ी जरूर खेल सके। लगभग डेढ़ साल पहले घरेलू क्रिकेट में कोटा सिस्टम का कानून बना है, जहां दक्षिण अफ्रीका की हर पेशेवर क्लब टीम को कम से कम एक अश्वेत खिलाड़ी को शामिल करने की गारंटी लेनी होगी। इस नियम को लागू करते हुए दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट संघ ने माना था कि अश्वेत खिलाड़ियों को क्रिकेट की मुख्यधारा में लाने के उनके प्रयास नाकाम रहे और वे फेल हो गए हैं।
 
यह बात समझने वाली है कि दक्षिण अफ्रीका में रह रहा श्वेत समुदाय संसाधनों के मामले में बहुत बेहतर स्थिति में है। वह मध्य और उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और लंबे वक्त से क्रिकेट खेलता आया है।

ये तथ्य उनके हक में जाते हैं। अश्वेत तबका अभी भी समाज के निचले स्तर पर है। हाशिम अमला और इमरान ताहिर जैसे भारतीय मूल के खिलाड़ियों का टीम में आना जरूर अच्छा लगता है।
 
लेकिन जिस समाज ने अपने रंगभेद को खत्म करने के लिए एक महान लड़ाई लड़ी, बेहतर हो कि उसका प्रभाव क्रिकेट सहित समाज के अलग अलग आयामों में प्रतिबिंबित हो। और यह काम किसी कोटा सिस्टम से पूरा नहीं हो सकता। कोटे से कभी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा नहीं आती। इसके लिए समाज के स्तंभों को ही कदम बढ़ाना होगा।
 

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