डर तो कायम हुआ, सजा नाकाफी है

मप्र की राजधानी भोपाल में गत दिनों फांसी की सजा का कानून बन गया और वर्ष के आखिरी-आखिरी में भोपाल की एक पीड़ित लड़की के आरोपियों को फांसी की सजा मुकर्रर हो गई। वहीं इंदौर में लगभग 5-6 वर्ष की बालिका की अश्लील वीडियो बनाने वाली वारदात में जांच की कार्रवाई चल रही है, मगर इस वारदात ने बच्ची की दिमागी हालत में खलल पैदा कर दिया है, वो भी पूछताछ करने वाले जांचकर्ताओं के व्यवहार और सवालों से...!
 
समझ में नहीं आता कि इन जांचकर्ता अफसरों की अक्ल पर तरस खाया जाए या बच्ची पर? अगर 6 साल की बच्ची को झूठ बोलना था या उसके दिमाग में खलल था तो वह कुछ और हरकत भी करती या कुछ और भी तो बोल सकती थी। जांच के अंत में संभवत: ये रिजल्ट भी निकल जाए कि बच्ची की नादानी से सबको परेशान होना पड़ा। किसी ने किसी प्रकार का वीडियो नहीं बनाया। जय सियाराम। सब भेंट-पूजा की कृपा है। कुछ पैसा तो अब तक बंट गया होगा (शायद प्रयास भी चल रहा हो)।
 
खैर जो भी हुआ हो, लेकिन बच्ची वो भी 6 साल के लगभग की झूठ नहीं बोल सकती, क्योंकि ये उम्र इतनी समझदार नहीं होती कि चालाकी कर सके। सरल, सीधी और ईमानदार उम्र होती है। जांच करने में बच्ची को डराने जैसी बात भी अखबारों में साया हुई है, ऐसे में लगता है कि बच्ची की किसी को परवाह नहीं है। संभवत: शायद भेंट-पूजा मिल जाने से ऐसा किया जा रहा हो। अगर बच्ची द्वारा कही गईं सारी बातें सच साबित हो जाएं तो भी वीडियो बनाने वाली आरोपियों को सख्त सजा शायद ही मिले...।
 
कहने का मतलब ये है कि किसी बच्ची के बलात्कारी को फांसी की सजा दी जाए तो बच्चों या बच्चियों के अश्लील वीडियो बनाने वालों को भी सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए। वैसे बच्ची के बलात्कारी को दी जाने वाली फांसी की सजा भी नाकाफी है, क्योंकि अपराध करने से पहले अपराधी न आगा सोचता है, न पीछा।
 
ये जरूर है कि फांसी की सजा के प्रावधान से डर जरूर कायम हुआ है, मगर ये कहा जाए कि इससे इस तरह के अपराध खत्म हो जाएंगे, ये लगभग नामुमकिन है। इसका सबसे बड़ा कारण है- खान-पान, रहन-सहन, पाश्चात्य-संस्कृति का अंधानुकरण आदि-इत्यादि। और इसके बाद आती है कानूनी सुराखों की बारी।
 
आज के दौर का खाना केवल पेटभरू हो गया है। मन-मस्तिष्क में सात्विक विचारों के आवागमन में कहा जाता है कि खान-पान का भी बड़ा महत्व होता है। आज के खान-पान से मानव की दशा और दिशा दोनों बदल गई है। नकारात्मक सोच जल्द ही घर कर लेता है। पाश्चात्य अंधानुकरण ने रहन-सहन का ढंग ही बदल दिया है और इंसान वासना के वशीभूत होता जा रहा है।
 
पहली बात तो इस तरह रेप के केस सामने तब ही आते हैं, जब बात काफी हद तक बढ़ जाती है। वरना तो अधिकांश लगभग 70 प्रतिशत मामलों में तो समाज-रिश्तेदारों आदि के डर से दर्द सहन करने को मजबूर हो जाते हैं। हालांकि कानून में रेप पीड़िता से सहानुभूतिवश अनेक धाराएं ऐसी डाली गई हैं जिससे दुर्व्यवहार जैसे हालातों का सामना न करना पड़े।
 
लेकिन हादसा जो है कि जिंदगीभर प्रश्न-उत्तर के जाल में फंसा देता है। पीड़िता घर से निकलेगी तो सवाल पैदा होगा कि अरे उसकी आंखों में तो कुछ और ही इशारा था। इसके अलावा आरोपी को, पीड़िता के हितार्थ बने कानूनों के बावजूद बचने के आज भी तमाम रास्ते हैं। आरोपी अगर ठाटबाट का है तो उस पर तो आरोप लगाना ही सबसे बड़ा कष्टसाध्य होगा, क्योंकि पुलिस उनकी, कानून उनका, वकील उनके।
 
मप्र में ही अनेक लड़कियां, युवतियां ऐसी होंगी जिन्हें अपने बॉस को 'खुश' करना पड़ता होगा, वर्ना नौकरी जाने का डर। ये जरूर है कि छेड़छाड़ या अश्लीलता करने पर भी दंड का प्रावधान है, मगर ये सड़क पर ही काम आता है, ऑफिस में या काम करने की जगह पर नहीं। 
 
फांसी देने से आरोपी का तो एक झटके में निर्णय हो जाएगा और तिल-तिलकर मरने के लिए रह जाती है पीड़िता जिसके साथ हादसा यानी रेप तो एक बार ही होता है, मगर समाज व रिश्तेदारों की आंखों का रेप जिंदगीभर सहन करना पड़ता है। जब तक इसमें बदलाव नहीं आता, तब तक फांसी की सजा भी नाकाफी है। इसके लिए पीड़िता को सहानुभूति नहीं, बल्कि हौसला-अफजाई की जरूरत है।
 
और अगर आरोपी के साथ समाज में रह रहे भविष्य में इस तरह की वारदात करने वालों को अगर सबक सिखाना है, तो वर्तमान के आरोपी को पौरूषहीन नपुंसक बनाकर छोड़ना होगा। इस सजा से आरोपी को घुट-घुटकर मरने पर मजबूर होना पड़ेगा। आरोपी को फांसी की बजाए लिंग काटने का प्रावधान होता तो ज्यादा बेहतर होता।

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