नक्सलियों द्वारा आम लोगों को निशाना बनाए जाने के बाद भी बुद्धिजीवी उनका समर्थन कर रहे हैं। यहाँ तक कि जेएनयू दिल्ली और अन्य उच्च शिक्षा के संस्थानों में नक्सलियों के हमलों को सार्वजनिक रूप से सराहा जा रहा है। तालीम के मंदिरों में हिंसा के पुजारियों के प्रति इस तरह की भावना खतरनाक है।
क्या यह जरूरी नहीं कि जो छात्र-छात्रा नक्सली आंदोलन को इंसाफ की लड़ाई मान रहे हैं, उन्हें सच और झूठ के बारे में बताया जाए। उन्हें यह स्पष्ट किया जाए कि नक्सलियों ने हक के नाम पर जो रास्ता अख्तियार किया है, वह गलत है। क्या बुद्धिजीवियों को नक्सलियों का बंद आँखों से समर्थन करने के बजाय इस समस्या को हल करने में सरकार के हाथ मजबूत नहीं करना चाहिए।