प्रबंधन या मैनेजमेंट किसी भी व्यापार-व्यवसाय में जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है फसल उत्पादन में। फसल उत्पादन में जोखिम व्यापार-व्यवसाय की अपेक्षा कई गुना ज्यादा है। आदर्श फसल प्रबंधन का सबसे पहला व महत्वपूर्ण घटक है वानस्पतिक विविधता। प्रकृति में पेड़, झाड़ी, बहुवर्षीय फसलें, एकवर्षीय फसलें, मौसमी घास, चारे आदि अनेक वर्ग के पेड़-पौधे पाए जाते हैं।
फसलों में भी अनाज, दलहन, तिलहन, रेशा, शकर, पशु चारा, औषधि व सुरभीय फसलों में से उपयुक्त मिलान किए जा सकते हैं। ये उपयोग की दृष्टि से ही नहीं वरन वानस्पतिक कुल के हिसाब से भी अलग-अलग वर्ग के हैं। इनकी मौसम, मिट्टी और पोषण संबंधी जरूरतें अलग-अलग होती हैं। इसलिए इन्हें मिलाकर मिश्रित फसल या अंतरवर्ती फसल पद्धति से उगाए जाने पर मिट्टी, मौसम, पोषण, सिंचन, कीड़े और रोग संबंधी जोखिम भी कम होने की संभावना रहती है।
इस पद्धति से किसान को किसी न किसी फसल की अच्छी उपज मिलकर दूसरी फसल की कम उपज की क्षतिपूर्ति हो ही जाती है। इसी रबी के मौसम में छः-सात सिंचाई वाले गेहूँ एक हैक्टेयर में लगाने की अपेक्षा एक या दो सिंचाई चाहने वाले गेहूँ दो हैक्टेयर में लगाने पर उतने ही पानी में कुल उत्पादन अधिक मिल सकता है। सीमित सिंचाई वाले गेहूँ की अकेली फसल की अपेक्षा गेहूँ के साथ चना, अलसी, सरसों आदि फसलें अलग-अलग कतारों में अंतरवर्ती फसल के रूप में लेना अधिक लाभदायक हो सकता है।
कतारों का अनुपात मुख्य और सहायक फसल में अलग-अलग रखा जा सकता है। मुख्य फसल की कतारों की संख्या अधिक और सहायक फसल की कतारों की संख्या कम रखी जाती है।
उज्जैन व मंदसौर क्षेत्र में गेहूँ की 8-10 कतारों के बाद सरसों, राई की दो कतारें लगाई जाती हैं। गेहूँ (सीमित सिंचाई) की 4 या 6 कतारों के साथ चने या अलसी की दो कतारें लगाई जा सकती हैं। इसी प्रकार जौ की 4-6 कतारों के साथ चने की दो कतारें बोई जा सकती हैं। असिंचित क्षेत्रों में एक बार पलेवा करके अलसी, मसूर या चना लगाया जाता है। यहाँ भी अलसी दो कतारों के बीच चना या मसूर की दो कतारें लेना लाभदायक हो सकता है।
सामान्यतः अलसी की चार से आठ कतार की पट्टियाँ गेहूँ या चने के खेत के आसपास लगाई जाती हैं। अलसी के पौधों को पशु नहीं चरते हैं, इसलिए ये फसलें भी नुकसान से बच जाती हैं।
अंतरवर्ती फसल पद्धति में मुख्य फसल की उपज उस अकेली फसल से कुछ कम हो जाती है, परंतु मुख्य व सहायक दोनों फसलों की उपज मुख्य फसल की अकेली उपज से सवा से डेढ़ गुना तक मिल जाती है। साथ ही सहायक फसल दलहन वर्ग की हो तो उसके द्वारा वातावरण से ली गई नत्रजन मुख्य फसल को भी मिल जाती है। इस प्रकार उर्वरक पर होने वाले खर्च में कुछ कमी की जा सकती है।
अंतरवर्ती फसल पद्धति में मौसम की असामान्यता व रोग कीड़ों से हानि तथा एक ही फसल की उपज के बाजार भाव में होने वाले उतार-चढ़ाव की जोखिम दो फसलों के उत्पादन के कारण कम होने की संभावना रहती है। यदि आप एक ही फसल लेना चाहते हैं तो उसकी भी एक ही किस्म उगाने की अपेक्षा अलग-अलग तीन-चार किस्में उगाना कम जोखिमभरा होगा।