वर्षा जल के संचय के लिए अनेक प्रचलित यांत्रिक विधियाँ अपनाई जाती हैं। इन विधियों से जमीन पर तो भौतिक रूप से जल एकत्रित हो जाता है लेकिन इससे मिट्टी की दशा में कोई सुधार नहीं होता है।
मालवा क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 900-1200 मिमी, निमाड़ में 650-950 मिमी के बीच होती है। निमाड़ की घाटी की अपेक्षा मालवा पठारीय क्षेत्र होने से कुछ कम गर्म रहता है। इन क्षेत्रों की मिट्टी की जल धारण, जल शोषण व जल संग्रहण क्षमता अलग-अलग होती है
यदि इन विधियों के साथ ही सस्य वैज्ञानिक (जैविक) विधियाँ भी अपनाई जाएँ तो मिट्टी की जैविक संरचना में सुधार होता है। मिट्टी में जीवांश पदार्थ (आर्गेनिक मैटर) की वृद्धि होती है। जीवांश पदार्थ में पाया जाने वाला आर्गेनिक कार्बन ही मिट्टी की जान होता है। यह विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म जीवों का भोजन होता है। इसकी मात्रा बढ़ने से भूमि में सूक्ष्म जीवों की संख्या ज्यामितिक गति (ज्योमैट्रिक प्रोग्रेसन) से बढ़ती है। इनकी संख्या में वृद्धि से भूमि की भौतिक, रासायनिक व जैव रासायनिक क्रियाएँ और गतिविधियाँ तेज हो जाती हैं। भूमि का तापमान, भूमि की जल शोषण, जल संचयन, जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है। इससे पोषक तत्वों की उपलब्धता, वायु संचरण बेहतर हो जाता है।
मृदा एवं जल संरक्षण संबंधी अनेक प्रयोगों एवं परीक्षणों से (जो देश के विभिन्न भागों में किए गए) यह सिद्ध हो चुका है कि वनस्पति रहित भूमि की अपेक्षा वनस्पति से आच्छादित भूमि से मिट्टी का कटाव (क्षरण) बहुत कम होता है। मध्यम गहरी (45 सेमी गहराई वाली) और गहरी (45 सेमी से अधिक गहराई वाली) भूमियों में खरीफ के मौसम में एक मुख्य फसल के साथ एक सहायक फसल अंतरवर्ती फसल के रूप में सफलतापूर्वक ली जा सकती है। इसके लिए ऐसी फसलें या फसलों की ऐसी किस्में चुनें जो स्थान (पौधे के फैलाने की जगह), पोषक तत्व, नमीं, धूप आदि के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा न करती हो।
इस तरह की अंतरवर्ती फसलों में सोयाबीन की मुख्य फसल की 4 या 6 कतरों के बाद 2 कतारें जुवार, मक्का या मध्यकालीन अरहर की लगाई जा सकती हैं। इसी प्रकार कपास की दो कतारों के बीच अरहर, मूँग, उड़द, मूँगफली आदि की लगाई जा सकती हैं। इनके बीच का अंतर मिट्टी, फसल की किस्म के अनुसार थोड़ा कम या ज्यादा किया जा सकता है।
अंतरवर्ती फसल के मूल सिद्धांत के अनुसार मुख्य फसल की पौध संख्या शत-प्रतिशत रखी जाती है। सहायक फसल के पौधों की संख्या उस फसल के लिए उपलब्ध क्षेत्र के अनुसार रखी जाती है। पौध संख्या का निर्धारण मोटे रूप से उस फसल विशेष की बोवनी के लिए लगने वाली प्रति हैक्टेयर बीज दर के हिसाब से किया जाता है।
उदाहरण के लिए सोयाबीन-मक्का की अंतरवर्ती फसल में सोयाबीन का 100 किग्रा बीज प्रति हैक्टेयर रखा जाता है। मक्का की सहायक फसल यदि 6:2 के अनुपात में बोई गई है तो मक्का को एक-चौथाई क्षेत्र में बोया जाएगा। इसलिए इसके बीज की मात्रा सामान्य बीज दर से एक चौथाई यानी 4 से 5 किग्रा रखी जाती है।
दोनों फसलों की बोवनी ढलान के समकोण या 60 डिग्री या 45 डिग्री अंश के कोण पर (ढलान के अनुसार) की जाना उपयुक्त पाया गया है। अधिक चिकनी व अधिक गहरी मिट्टी या अधिक वर्षा वाली जगहों पर फसलों की 15-20 कतारों के बाद हल से एक गहरी कुंड जल निकास के लिए बनाएँ। इन कुंडों को एक मुख्य कुंड से मिलाते हुए अतिरिक्त जल को बिना गति बढ़ाए निकालने की व्यवस्था करें।
उपयुक्त फसलों का चुनाव भूमि के ढलान पर निर्भर करता है। आधे प्रतिशत प्रति एक सौ फुट पर आधा फुट यानी छः इंच तक ढलान पर सभी फसलें ली जा सकती हैं। आधे से एक प्रतिशत तक ढलान वाले खेतों में जुवार, बाजरा, मक्का के साथ दलहन फसलें ली जानी चाहिए। इनकी कतार अनुपात या क्षेत्र वितरण 50:50 से लेकर 70:30 तक हो सकता है। एक से तीन प्रतिशत ढलान वाले खेतों में या भूमि पर सिर्फ दलहन फसलें ही बोई जानी चाहिए।
तीन से छः प्रतिशत तक ढलान वाली भूमियों में सीताफल, नीबू, बेर, पपीता आदि फल वृक्ष लगाकर इनके बीच खाली जगह में अल्पकाल में आने वाली दलहन फसलों की किस्में लगाई जाना उपयुक्त होगा। पानी के बहाव व निकास हो सही दिशा देने के लिए इनमें समोच्च बाँध (कंटूर बँध) बनाना समर्थित है। इससे अधिक ढलान वाली भूमि घास, चारा व ऊर्जा वृक्ष उत्पादन के लिए ही काम में लाई जाती है। मिट्टी व जल के संरक्षण के साथ वैज्ञानिक उपायों का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग द्वारा उनका सक्षम, संतुलित लाभ लेना है। इससे भूमि क्रमशः उत्तरोतर सुधरती व उर्वरक होती जाती है।