जब भी देश के उत्तरी भागों में बर्फ गिरती है, मध्यवर्ती भागों में भी शीतलहर का असर होता है। पारा नीचे गिरने लगता है। यह समय सामान्यतः दिसंबर-जनवरी में आता है। इन दिनों भी न्यूनतम तापमान 12-13 डिग्री सेल्सियस तक आ जाता है, परंतु तापमान जब 6 डिग्री से कम हो जाता है, तब फसल के पौधों को हानि की आशंका बढ़ जाती है।
अत्यधिक कम (4 डिग्री से कम) तापमान होने पर पानी बर्फ में परिवर्तित होने लगता है। इससे पौधे की कोशाओं में रासायनिक परिवर्तन के कारण उनके श्वसन में रुकावट आने लगती है। बर्फ बनने से कोलायड प्रणाली गड़बड़ा जाती है। वास्तविक रूप से कोशा के बाहर (दो कोशाओं के बीच) की जगह में जमी बर्फ, कोशाओं के अंदर जमी बर्फ की अपेक्षा अधिक हानिकारक होती है। सदी का अधिक असर सर्दी का असर तब और अधिक होता है, जब वातावरण का तापमान और नमी दोनों ही कम हो।
पानी के बर्फ में बदलने से उसका आयतन बढ़ जाता है। इससे कोशिकाओं की दीवाल पर दबाव बढ़ जाता है। इसके कारण कोशिका भित्ति की दीवारों में दरार पड़कर वे फट जाती हैं। इसके साथ ही कोशिकाओं के भीतर मौजूद जीव द्रव्य (प्रोटोप्लास्म) हिमांक बिंदु के तापमान तक पहुँचने पर ठंडा होकर बर्फ बनकर निर्जीव हो जाता है। इससे कोशिकाओं की क्रियाशीलता और जैविक गतिविधि बंद होकर पौधों के प्रभावित भाग नष्ट हो जाते हैं या संपूर्ण पौधा मर जाता है।
तापमान कम होने पर तापमान कम होने पर पाला पड़ने की आशंका की सूचना आकाशवाणी व दूरदर्शन पर मौसम पूर्वानुमान में दी जाती है। यह चेतावनी बड़े व व्यापक क्षेत्र के लिए दी जाती है। स्थानीय रूप से भी जिस दिन शाम को अन्य दिनों की अपेक्षा ठंड अधिक हो, हवा का बहाना एकाएक रुक जाए, आकाश एकदम साफ व बदलीरहित हो तो पाला पड़ने की अधिक आशंका रहती है। हवा की गति धीमी यानी 3-4 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने पर पाले से अधिक हानि होती है।
सिंचाई करना जिस दिन पाला पड़ने की आशंका हो, फसल में सिंचाई कर दें। पानी देने से भूमि की निचली सतह की उष्मा सतह तक आने व सूक्ष्म वातावरण में नमी की मात्रा बढ़ने से पाले का असर नहीं होता या कम हो जाता है। सिंचाई करने से खेतों की सतह से पास से वातावरण का तापमान 2 से 5 डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है। (पंजाब कृषि विश्वविद्यालय)।
धुआँ करना बिना सिंचाई वाले क्षेत्रों में पाले से बचाव के लिए खेतों की मेढ़ों के ऊपर घास, खरपतवार, गोबर (सूखा), कंडे, कूड़ा-करकट आदि इकट्ठा करके रख लेते हैं। पाला पड़ने की आशंका पर उसमें आग लगाकर धुआँ कर दें। इससे वातावरण व फसल के बीच धुएँ की परत बन जाती है। इससे फसल का बचाव हो जाता है।
रसायनों का छिड़काव प्रयोगों में पाया गया है कि चने की फसल पर 600 मिली सायकोसिल प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़कें। आलू की फसल पर 0.1 प्रतिशत गंधकाम्ल के छिड़काव से अनुपचारित फसल से 18 क्विंटल उपज अधिक मिली। इनका उपयोग विशेषज्ञों की देखरेख में ही करें अन्यथा हानि हो सकती है।
छप्पर का उपयोग नर्सरी में तैयार किए जा रहे रोपों के ऊपर बाँस की चटाई का छप्पर छाने से भी पाले का असर कम होता है।
पाले से बचाव के उपाय हर साल पाला पड़ने वाले क्षेत्रों के किसान पहले से ही पाला सहन करने वाली फसलें जैसे गेहूँ, जौ, चुकंदर, मूली, गाजर शलजम, पालक, सलाद पत्ती आदि फसलें ही उगाते हैं। पाला यदि हर साल एक ही समय पर पड़ता है तो फसलों के बोने के समय सामान्य समय से कुछ जल्दी या देर से किया जा सकता है। सामान्यतः फसलों पर पाले का असर उसकी प्रारंभिक अवस्था या फूल आने की अवस्था में अधिक होता है। पाला आने के समय तक फसल पक चुकी हो तो नुकसान से बच जाती है।