प्याज एक लाभदायक कंद वाली ठंडे मौसम की फसल है, जिसे पाले से कम हानि होती है। फसल के विकास व वृद्धि पर तापक्रम का भारी प्रभाव पड़ता है। पौधों की वृद्धि के लिए छोटे दिन व कम तापक्रम तथा कंद वृद्धि के लिए बड़े दिन व अधिक तापक्रम की आवश्यकता होती है। प्याज का प्रतिवर्ष भारी मात्रा में विदेशों में निर्यात किया जाता है। विश्व में प्याज का औसत उत्पादन 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है, जबकि भारत में इसकी औसत पैदावार 100 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है। मप्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक राज्यों में इसकी खेती काफी बड़े पैमाने पर की जाती है।
जलवायु : प्याज के रोपे मुख्य खेत में लगाने के दो माह तक औसतन तापमान 10 से 18 डिग्री सेल्सियस होना लाभकारी होता है। तापमान 21 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर पौधों की बढ़वार व गाँठों का विकास प्रभावित होता है।
भूमि : प्याज की खेती हर प्रकार की भूमि, जिसमें जीवाश्म की भरपूर मात्रा हो व जल निकास का अच्छा प्रबंध हो, आसानी से की जा सकती है। परंतु दुमट तथा बलुई टुमट मिट्टी उत्तम होती है।
खेत की तैयारी : उत्पादन लेने हेतु एक गहरी जुताई के बाद 2-3 जुताई उथली करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें। अंतिम तैयारी के समय खाद एवं उर्वरक की संतुलित मात्रा मिलाकर सिंचाई हेतु क्यारियाँ बना लें।
खाद एवं उर्वरक : प्याज की फसल के लिए 20-25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद, नत्रजन 100 किग्रा, स्फुर 50 किग्रा व पोटाश 75 किग्रा तथा सल्फर 20 किग्रा प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है।
बीज एवं बुवाई : प्याज की बुवाई सीधे खेत में बीज बोकर भी की जा सकती है, परंतु अधिक उत्पादन लेने हेतु सदैव रोप तैयार करके रोपण द्वारा ही खेती करनी चाहिए। प्याज का 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त रहता है। एक हैक्टेयर की फसल लेने हेतु 500 वर्गमीटर क्षेत्रफल में 1.25 मीटर चौड़ी तथा 8 मीटर लंबी क्यारियाँ बना लें तथा उनमें 8-10 किग्रा बीज थीरम अथवा बाविस्टीन दवा से उपचारित करके बो दें। सामान्यतः डेढ़ से दो माह में रोप तैयार हो जाती है।
बुवाई का समय : रबी प्याज की खेती मैदानी भागों में मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर तक की जाती है। अधिक जल्दी प्याज बोने पर गाँठों की बढ़वार अधिक होकर वह फट जाती है। उनमें बीच में कड़ा डंठल पड़ जाता है। इस कारण ये गाँठें अपेक्षाकृत खाने लायक नहीं रहती हैं। देर से प्याज बोने पर गाँठें छोटी रह जाती हैं, जिससे पैदावार घट जाती है। अच्छे उत्पादन के लिए बुवाई का उचित समय नवंबर का पहला व दूसरा सप्ताह है।
रोपण : पहले से तैयार खेत में 15 अक्टूबर से 30 नवंबर तक रोपण कर देना चाहिए। रोपण के लिए लाइन से लाइन की पूरी 15 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी रखनी चाहिए तथा बाद सिंचाई करना न भूलें।
सिंचाई : सामान्य रूप से 10 से 12 दिन के अंतराल में 15-20 सिंचाई पर्याप्त रहती है। प्याज में सदैव हल्की सिंचाई करें, पौधों की बढ़वार एवं कंद बनते समय मिट्टी में नमी रखना नितांत आवश्यक है।
पौध संरक्षण के उपाय : प्याज तथा लहसुन की फसल पर जिन रोगों का आक्रमण होता है, उनमें सर्वाधिक हानि परपल ब्लॉच अथवा ब्लाइट से होती है एवं थ्रिप्स कीट का प्रकोप अधिक होता है। नियंत्रण हेतु डायथेन एम-45 के 0.25 प्रश घोल का 12 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें। दवा के प्रभावी परिणाम लेने हेतु घोल में चिपकने वाला कोई पदार्थ अवश्य ही मिला लें।
उन्नत किस्में प्याज की अनेक स्थानीय किस्में हैं, जिसमें कंद के आकार, फसल की परिपक्वता अवधि व तीखेपन में भारी भिन्नता पाई जाती है। प्याज की किस्मों को उनके छिलके के रंग के अनुसार लाल, सफेद व पीली- तीन ग्रुप में विभाजित किया जाता है। लाल छिलके वाली किस्मों में पूसा रेड, एग्रीफाउंड रेड एन-53, एन-404, मासिक रेड, पूसा रतनार, पूसा माधवी, सफेद छिलके वाली किस्मों में एन-257-9-1, पूसा व्हाइट फ्लेट, पटना सफेद मुख्य हैं व पीले छिलके वाली एग्रीग्रेनो, अर्ली यलोग्लोब, अर्कापिताम्बर आदि। (नईदुनिया)