सितंबर की शुरुआत में जब अमेरिका में वित्तीय संकट के चलते एक के बाद एक बड़े बैंक धराशायी होते जा रहे थे, तब जॉन मैक्केन ने घोषणा की थी कि वे चाहेंगे कि राष्ट्रपति पद के प्रचार के दौरान होने वाली पहली बहस को निलंबित कर दिया जाए और वॉशिंगटन डीसी लौट जाया जाए। तब उनके पास पूछने के लिए कोई स्पष्ट सवाल या संकट को सुलझाने के लिए कोई योजना नहीं थी।
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उस समय ओबामा के पास भी इस संकट से बाहर निकलने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं थी, लेकिन तब भी उन्होंने पूरी गंभीरता के साथ बहस में हिस्सा लिया और पूरे देश पर अपनी छाप छोड़ी।
इसके बाद ओबामा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आर्थिक मुद्दों पर उनके प्रचार की बढ़त लगातार बढ़ती गई। उस समय केवल चुनाव प्रचार था और कुछ भी नहीं, लेकिन तब भी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आर्थिक चुनौतियों और वित्तीय मंदी को देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती मानता था। उस समय भी न केवल अमेरिका, वरन सारी दुनिया को ओबामा से उम्मीद थी कि वे वित्तीय व्यवस्था को सामान्य बनाकर लोगों में विश्वास बहाल करेंगे।
राष्ट्रपति पद के लिए चुने जाने के कुछ दिनों बाद ही ओबामा को विश्व के शीर्ष 20 देशों की 20 नवंबर को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वारा बुलाई गई वित्तीय शिखर बैठक में भाग लेने का मौका मिलेगा।
अपनी नीतिगत घोषणाओं के जरिये ओबामा को निम्न और मध्यम वर्ग के लिए कर कम करने के प्रबल समर्थक के रूप में जाना जाता है। संपन्न वर्ग के लिए वे अधिक करों के पक्षधर रहे हैं, लेकिन समय बताएगा कि वे आगे क्या करेंगे। ओबामा बढ़ती हुई ऊर्जा स्वतंत्रता के पक्षधर रहे हैं और अमेरिका में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों में निवेश को बढ़ा सकते हैं।
अमेरिका में नौकरी के अवसर पैदा करने, कड़े कराधान कानूनों के जरिये आउटसोर्सिंग नौकरियों पर रोक लगाने की बात करते रहे हैं। इन पर कितना अमल होगा और किस हद तक तथा इससे भारतीय आउटसोर्सिंग उद्योग पर कितना असर पड़ेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है
भारतीयों ने पूरे दिलो-दिमाग और सभी तरह से ओबामा के प्रचार में मदद की है और उन्होंने भी अमेरिका में भारतीयों के योगदान को बार-बार स्वीकार किया और माना कि भारत-अमेरिकी व्यावसायिक संबंधों में उनकी अहम भूमिका रही है।
पेप्सिको की इंदिरा नूई उनकी करीबी कारोबारी सलाहकार रही हैं और वे खुद भी परमाणु करार के प्रबल समर्थक रहे हैं, जिससे दोनों देशों को लाभ होगा।
हालाँकि इसके साथ ही ओबामा अपने चुनाव प्रचार के दौरान करों में कमी के साथ अमेरिका में नौकरी के अवसर पैदा करने, कड़े कराधान कानूनों के जरिये आउटसोर्सिंग नौकरियों पर रोक लगाने की बात करते रहे हैं। इन पर कितना अमल होगा और किस हद तक तथा इससे भारतीय आउटसोर्सिंग उद्योग पर कितना असर पड़ेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है।
पर हाल में भारत समेत सभी वैश्विक शेयर बाजारों द्वारा बेहतरी प्रदर्शित करने से स्पष्ट है कि नए प्रशासन और नई नीतियों का असर दिखने लगा है। यह भी उम्मीद की जाती है कि रिपब्लिकन प्रशासन में तेल ऊर्जा लॉबी की मजबूत पकड़ कमजोर होगी और निकट भविष्य में हमें एक बार तेल प्रति बैरल 50 डॉलर तक के स्तर पर देखने को नहीं मिलेगा।