बात उन दिनों की है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू लखनऊ की सेंट्रल जेल में थे। लखनऊ सेंट्रल जेल में खाना तैयार होते ही मेज पर रख दिया जाता था। सभी सम्मिलित रूप से खाते थे।
एक बार एक डायनिंग टेबल पर एक साथ सात आदमी खाने बैठे। तीन आदमी नेहरूजी की तरफ और चार आदमी दूसरी तरफ।
एक पंक्ति में नेहरूजी थे और दूसरी में चंद्रसिंह गढ़वाली। खाना खाते समय शकर की जरूरत पड़ी। बर्तन कुछ दूर था चीनी का, चंद्रसिंह ने सोचा- 'आलस्य करना ठीक नहीं है, अपना ही हाथ जरा आगे बढ़ा दिया जाए।'
चंद्रसिंह ने हाथ बढ़ाकर बर्तन उठाना चाहा कि नेहरूजी ने अपने हाथ से रोक दिया और कहा- 'बोलो, जवाहरलाल शुगर पॉट (बर्तन) दो।' वे मारे गुस्से के तमतमा उठे। फिर तुरंत ठंडे भी हो गए और समझाने लगे- 'हर काम के साथ शिष्टाचार आवश्यक है। भोजन की मेज का भी अपना एक सभ्य तरीका है, एक शिष्टाचार है।
यदि कोई चीज सामने से दूर हो तो पास वाले को कहना चाहिए- 'कृपया इसे देने का कष्ट करें।'
शिष्टाचार के मामले में नेहरूजी ने कई लोगों को नसीहत प्रदान की थी।
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चाचा नेहरू की विनोदप्रियता
एक बार एक बच्चे ने ऑटोग्राफ पुस्तिका नेहरूजी के सामने रखते हुए कहा- साइन कर दीजिए।
बच्चे ने ऑटोग्राफ देखे, देखकर नेहरूजी से कहा- आपने तारीख तो लिखी ही नहीं!
बच्चे की इस बात पर नेहरूजी ने उर्दू अंकों में तारीख डाल दी!
बच्चे ने इसे देख कहा- यह तो उर्दू में है।
नेहरूजी ने कहा- भाई तुमने साइन अंगरेजी शब्द कहा- मैंने अंगरेजी में साइन कर दी, फिर तुमने
तारीख उर्दू शब्द का प्रयोग किया, मैंने तारीख उर्दू में लिख दी।
यह था नेहरूजी का बच्चों के प्रति विनोदप्रियता का लहजा।
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आत्मनिर्भर नेहरू
नेहरूजी इंग्लैंड के हैरो स्कूल में पढ़ाई करते थे।
एक दिन सुबह अपने जूतों पर पॉलिश कर रहे थे तब अचानक उनके पिता पं. मोतीलाल नेहरू वहां जा पहुंचे।
जवाहरलाल को जूतों पर पॉलिश करते देख उन्हें अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने तत्काल नेहरूजी से कहा- क्या यह काम तुम नौकरों से नहीं करा सकते।
जवाहरलाल ने उत्तर दिया- जो काम मैं खुद कर सकता हूं, उसे नौकरों से क्यों कराऊं?
नेहरूजी का मानना था कि इन छोटे-छोटे कामों से ही व्यक्ति आत्मनिर्भर होता है।