कविता : एक दुआ हमारे बुजुर्ग..
निशा माथुर
एक ख्याल की तरह होते हैं,
जब पल-पल में बिखर जाते हैं,
अपने दिल की दुआओं से संभाला करते है हमें, हमारे बुजुर्ग।
जब अंर्तमन से होते हम खाली,
फिर कोई हमारी राह नहीं,
हमारा जूनून, हमारी ख्वाहिश, ताकत बन जाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
हम कौन हैं, क्या हैं, जब कोई
खुद की खबर नहीं होती हमें,
मरते हुऐ के लिए उस पल आशीर्वाद बन जाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
तूफान में जब कभी एक
दिये की तरह टिमटिमाते जलते हैं,
हर कदम पे हमें दे हिम्मत, हमारा हौंसला बढ़ाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
जब ये एहतराम होता है कि
कोई हमारा साथी, रहनुमा भी नहीं,
खुशियों की जिंदगी में तब, फलसफे बन जाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
चढ़ता दरिया बनकर और उफान के
गर पाना चाहे मंजिल कोई
देकर मशविरा तहजीब का, एक तजुर्बा बन जाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
जब कभी फितरत में रंगीन मिजाजी,
पुरजोर हो जाती है हमारे,
फैला के आंचल हमारे मुकद्दर पर, एक साया बन जाते हैं, हमारे बुजुर्ग।
कैसे ताउम्र बच्चों की परवरिश
और उनकी बेहतरी के जज्बे में,
मौत के हर कदम पर अपनी, सांसों को जीतते जातें हैं, हमारे बुजुर्ग।
जिनकी दुआओं से ही हमें हासिल होते हैं
ये शोहरत और ये मुकाम,
कांपता हाथ सर पर रखते ही, राह के पत्थर हटा देते हैं, हमारे बुजुर्ग।
बनके सरपरस्त जब हमें,
लपेट लेते हैं अपने बाहुपाश में प्यार से,
घर-आंगन में चांदनी लेकर, चांद बनकर उतर आतें है, हमारे बुजुर्ग।