इलाहाबाद का वह शर्मीला नौजवान

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कलकत्ता में एक प्राइवेट कंपनी में छः साल नौकरी करने के बाद उसके मन में यह ख्याल आया कि क्यों न हिंदी फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाई जाए। अभिनय का शौक उसे बचपन से ही था। इलाहाबाद में ब्वॉयज हाई स्कूल और फिर शेरवुड, नैनीताल में पढ़ाई के दौरान स्कूल में होने वाले नाटकों वह हमेशा अव्वल होता था।

पिता या मां को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। भाई भी मददगार था। मुंबई हमेशा ऐसे तमाम नौजवानों से अटी रहती है, जो एक दिन बॉलीवुड का चमकता सितारा बनने का ख्वाब सँजोए दूर-दराज के इलाकों से मुंबई का रुख करते हैं, पर वर्षों की थकन और टूटन के बाद सहारा देने और बात करने को होती हैं, सिर्फ समंदर की पछाड़ खाती लहरें।

एक दिन इस मायानगरी की सरजमीं पर वह नौजवान शख्स उतरा और चल पड़ा ख्वाजा अहमद अब्बास से मिलने। वे उन दिनों 'सात हिंदुस्तानी' फिल्म बना रहे थे। जुहू तारा रोड पर एक इमारत में उनका दफ्तर हुआ करता था। पीछे तेज लहरों में टूटता समंदर था। लहरों की आवाज दूर तक सुन पड़ती थी।
चूड़ीदार पैजामा और बंद गले का लंबा कुर्ता पहने वह नौजवान उनके दफ्तर में घुसा। बातचीत का सिलसिला चल निकला। वह इसके पहले और भी कई लोगों से मिल चुका था, लेकिन सबने उसकी लंबाई के कारण उसे रिजेक्ट कर दिया।


ख्वाजा अहमद अब्बास उस नौजवान की तस्वीर पहले ही देख चुके थे। हरिवंश राय बच्चन जब रूस जा रहे थे तो अजिताभ ने जिद करके उनसे एक बहुत मँहगा कैमरा लाने को कहा था। इसी कैमरे से विक्टोरिया मेमोरियल के सामने अपने भाई की तस्वीर उतारकर अजिताभ बंबई लेकर आए थे और यही तस्वीर ख्वाजा अहमद अब्बास ने देखी थी।

चूड़ीदार पैजामा और बंद गले का लंबा कुर्ता पहने वह नौजवान उनके दफ्तर में घुसा। बातचीत का सिलसिला चल निकला। वह इसके पहले और भी कई लोगों से मिल चुका था, लेकिन सबने उसकी लंबाई के कारण उसे रिजेक्ट कर दिया।

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बातचीत के दौरान आत्मविश्वास से चमकती उस शख्स की आँखें अब्बास साहब को भा गईं। फिर जब यह पता चला कि वह कलकत्ता में 1600 रु. महीने की लगी-लगाई नौकरी छोड़कर आ गया है, तो उन्हें थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। बोले: 'आपने सिर्फ यह भूमिका पाने की आशा में 1600 रु. महीने की नौकरी छोड़ दी। अगर आपका चयन नहीं हुआ तो।'

उसका जवाब था, 'खतरा तो उठाना ही पड़ता है।' उस स्वर में एक ऐसा आत्मविश्वास था कि अब्बास जी के मुँह से तुरंत निकल पड़ा, 'यह भूमिका आपको मिल गई।'

यह नौजवान अमिताभ बच्चन था।

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बातचीत के दौरान जब उन्हें पता चला कि यह अमिताभ हरिवंश राय बच्चन का बेटा है तो उन्हें थोड़ा संकोच हुआ। बोले, तुम्हारे पिता से पूछकर बताऊँगा, लेकिन जब अमिताभ ने उन्हें यह यकीन दिलाया कि इसमें पिता की भी राजी है और मैं कोई घर से भागकर थोड़े न आया हूँ, तब कहीं जाकर वे संतुष्ट हुए।

तो इस तरह से 'सात हिंदुस्तानी' के जरिए उस लंबे-दुबले और शर्मीले नौजवान ने हिंदी फिल्मों में शुरुआत हुई।

यह फिल्म सफल नहीं हुई और उसके बाद आई और कई फिल्में भी। ऋषिकेश मुखर्जी की 'आनंद' जरूर हिट थी, पर फिल्म की सफलता का सारा श्रेय मिला राजेश खन्ना को। उसके बाद तनूजा के साथ 'प्यार की कहानी' और 'परवाना' फिल्में भी बुरी तरह पिट गईं।

फिल्में तो मिल रही थीं, पर संघर्ष के दिन अभी खत्म नहीं हुए थे। उन दिनों अमिताभ हिंदी फिल्मों के कॉमेडियन महमूद के यहाँ रह रहे थे। एक दिन दोस्त राजीव गाँधी अमिताभ से मिलने वहाँ आए। दोनों की दोस्ती काफी गहरी थी। राजीव खूबसूरत और आकर्षक तो थे ही। बस, महमूद को भा गए। महमूद ने उन्हें फिल्म में काम करने का प्रस्ताव तक दे डाला। राजीव हँस पड़े। बोले, मेरे दोस्त को कोई काम दे दीजिए।

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उसके बाद बी.आर. इशारा की फिल्म 'एक नजर' में अमिताभ ने काम किया, जिसमें उनकी हिरोइन जया भादुड़ी थीं। यहीं से दोनों के प्रेम की शुरुआत हुई। फिल्में पिट रही थीं, मन टूट रहा था, और ऐसे में अमिताभ को जया का ही सहारा था। जया के बारे में हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, 'जया कद में नाटी, शरीर से न पतली, न मोटी, रंग से गेहुँआ। उसकी गणना सुंदरियों में तो न की जा सकती थी, पर उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीप्त-दीर्घ नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ट मधुर कंठ का।'

इसका बाद की कहानी भी बहुत लंबी है, लेकिन प्रकाश मेहरा की फिल्म 'जंजीर' ने अमिताभ को रातोंरात सितारा बना दिया था, एक ऐसा सितारा जो आज भी बॉलीवुड के आकाश में जगमगा रहा है और जिसकी चमक आज तक फीकी नहीं पड़ी है।

(हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा 'दशद्वार से सोपान तक' के आधार पर)