बुद्ध कहते हैं कि सत्य को छोड़कर जो असत्य बोलता है, धर्म का उल्लंघन करता है, परलोक की जिसे चिंता नहीं है, वह आदमी बड़े से बड़ा पाप कर सकता है।
बहुं पि चे सहितं भासमानो न तक्करो होति नरो पमत्तो। गोपो व गावो गणयं परेस न भागवा साभञ्जस्स होति॥
जो मनुष्य शास्त्र की बातें तो बहुत कहता है, पर उसके अनुसार आचरण नहीं करता, वह वैसा ही है जैसा दूसरों की गाएँ गिनने वाला ग्वाला। वह भिक्षु बनने लायक नहीं।
देखने में फूल खूब सुंदर हो, पर उसमें खुशबू न हो तो उसका होना, न होना बराबर है। उसी तरह जो आदमी बोलता तो बहुत मीठा है, पर जैसा बोलता है वैसा करता नहीं, उसकी मीठी वाणी व्यर्थ है।
जिस तरह खुशबू वाले सुंदर फूल का जीना सार्थक है, उसी तरह जो जैसा कहता है वैसा करता है, उसकी वाणी सफल होती है।
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सत्य के बारे में भगवान बुद्ध के विचार इस प्रकार हैं :-
* असत्यवादी नरकगामी होते हैं और वे भी नरक में जाते हैं, जो करके 'नहीं किया' कहते हैं।
* जो मिथ्याभाषी है, वह मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं हो जाता।
* जिसे जान-बूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं, उसका साधुपना औंधे घड़े के समान है। साधुता की एक बूंद भी उसके हृदय-घट के अंदर नहीं है।
* जिसे जान-बूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं, वह कोई भी पाप कर सकता है, इसलिए तू यह हृदय में अंकित कर ले कि मैं हंसी-मजाक में भी कभी असत्य नहीं बोलूंगा।
* जितनी हानि शत्रु शत्रु की और वैरी वैरी की करता है, मिथ्या मार्ग का अनुगमन करने वाला चित्त उससे कहीं अधिक हानि पहुंचाता है।
* सभा में, परिषद में अथवा एकांत में किसी से झूठ न बोलें। झूठ बोलने के लिए दूसरों को प्रेरित न करें और न झूठ बोलने वाले को प्रोत्साहन दें। असत्य का सर्वांश में परित्याग कर देना चाहिए।
* अगर कोई हमारे विरुद्ध झूठी गवाही देता है तो उससे हमें अपना भारी नुकसान हुआ मालूम होता है। इसी तरह अगर असत्य भाषण से मैं दूसरों की हानि करूं तो क्या वह उसे अच्छा लगेगा? ऐसा विचार करके मनुष्य को असत्य भाषण का परित्याग कर देना चाहिए और दूसरों को भी सत्य बोलने का उपदेश करना चाहिए। सदा ईमानदारी की सराहना करनी चाहिए।
* असत्य का कदापि सहारा न लें। न्यायाधीश ने गवाही देने के लिए बुलाया हो तो वहां भी जो देखा है, उसी को कहें कि 'मैंने देखा है', और जो बात नहीं देखी, उसे 'नहीं देखी' ही कहें।
* सत्यवाणी ही अमृतवाणी है, सत्यवाणी ही सनातन धर्म है। सत्य, सदर्थ और सधर्म पर संतजन सदैव दृढ़ रहते हैं।
* सत्य एक ही है, दूसरा नहीं। सत्य के लिए बुद्धिमान विवाद नहीं करते।
* ये लोग भी कैसे हैं। साम्प्रदायिक मतों में पड़कर अनेक तरह की दलीलें पेश करते हैं और सत्य और असत्य दोनों का ही प्रतिपादन कर देते हैं, अरे! सत्य तो जगत में एक ही है, अनेक नहीं।
* जो मुनि है, वह केवल सत्य को ही पकड़कर और दूसरी सब वस्तुओं को छोड़कर संसार-सागर के तीर पर आ जाता है। उसी सत्यनिष्ठ मुनि को हम शांत कहते हैं।