गंभीर सवाल खड़ी करती सच्चाइयाँ

- डॉ. मनोहर भंडारी

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यह गंभीर चिंतन का विषय है कि आजकल प्रतिभावान छात्र चिकित्सा शिक्षा को बेहद कम अहमियत दे रहे हैं। किसी भी शहर के श्रेष्ठतम स्कूलों का गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो बायोलॉजी विषय लेने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत तेजी से गिरता हुआ नजर आएगा। देश के चिकित्सा क्षेत्र में नूतन अनुसंधानों की जरूरतों की दृष्टि से से यह एक गंभीर संकेत है।

औसतन एक से तीन वर्षीय मुकम्मल पढ़ाई के पश्चात अधिकांश मामलों में महँगी कोचिंग के साथ प्रतिस्पर्धा पूर्ण परीक्षा के सफलता, प्रवेशोपरांत साढ़े पाँच साल का लंबा पाठ्यक्रम दिन-रात पढ़ाई का बोझ, इस दौरान क्लीनिकल पोस्टिंग के अंतर्गत अस्पताल में प्रशिक्षण भारी भरकम फीस (4 से लगभग 35 लाख रुपए), हर परीक्षा में असफल होने के सामने दिखते खतरे के बाद मिलती है एमबीबीएस की उपाधि, जिसकी न केवल चिकित्सा या स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में बल्कि सामाजिक दृष्टिसे भी कोई खास अहमियत नहीं है।

पच्चीस से सत्ताईस साल की उम्र बीतने पर यह डिग्री दस से बमुश्किल बीस हजार रुपए मासिक कमाने लायक बना पाती है। संयोग से जो एमबीबीएस स्नातक स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल नहीं कर पाए हैं, उनके भीतर के अवसाद, अफसोस, निराशा और उनके जीवन स्तर को देखकर समझदार हो चुके तरुण छात्र एमबीबीएस करने का विचार त्याग देते हैं।

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एमडी/एमएस व सुपर स्पेशलिस्टी के जमाने में एमबीबीएस का सपना होता है, कैसे भी इन उपाधियों को हासिल करना। प्रवेश परीक्षा के माध्यम से सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों में प्रवेश को छोड़ दिया जाए, तो हकीकतन ये डिग्रियाँ महँगी पड़ती हैं। चिकित्सकों और चिकित्सा विद्यार्थियों (यहाँ तक कि प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं) के बीच चर्चित राशि का जिक्र किया जाए तो एमडी/एमएस की डिग्री के लिए प्रवेश कम से कम साठ लाख और अधिकतम की सीमा अस्पताल की लोक प्रतिष्ठा और विषय पर निर्भर करती है।

30-31 साल की उम्र में हासिल ये डिग्रियाँ भी एकदम से कामधेनु नहीं हो जाती है। ऐसे में ताजा-ताजा युवा बना डॉक्टरी के सपने देखने वाला विद्यार्थी 30-31 साल की उम्र में एमडी/एमएस की डिग्री हासिल कर मानसिकता की दृष्टि से भी प्रौढ़ हो चुका होता है। क्या ऐसी स्थितियाँ श्रेष्ठतम प्रतिभा के धनी विद्यार्थियों के मन में डॉक्टर बनने के सपने को पैदा कर सकती है? जवाब तलाशे जाने चाहिए।

चिकित्सा शिक्षा के खुर्राट व्यापारियों (चिकित्सकों या चिकित्सा शिक्षकों नहीं) के मार्गदर्शन में बेशकीमती डिग्री के लिए दीक्षित चिकित्सक साधु-संत तो कतई नहीं बनेगा। वह अपने बेहतरीन रहन-सहन के साथ-साथ (पैतृक या अन्य कर्ज) को वसूलने का काम भी यथाशीघ्र शुरू करेगा। बताइए इसके अलावा उसके पास तार्किक व्यावहारिक और तथाकथित सामाजिक, दृष्टि से और कोई रास्ता भी तो नहीं बचता है।

अस्तु मनमानी फीस लेने के बाद हर चिकित्सक पूरी धैर्य, निष्ठा, कर्मनिष्ठ और संपूर्ण प्रतिभा का उपयोग कर परिश्रमपूर्वक रोगी को रोग तथा पीड़ा से मुक्त करने का प्रयास हर हाल में करता है। यह भी एक सच है। देश की 77 प्रतिशत गरीब जनता और लगभग 20 प्रतिशत मध्यमवर्गीय जनसंख्या को उनकी हैसियत के अनुरूप उचित मूल्य पर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने का लक्ष्य है तो इस विषय पर तत्परता से प्रशासनिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक स्तर पर गंभीर चिंतन की जरूरत है।

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