'मैं नहीं होकर और भी ज्यादा प्रगाढ़ हो जाऊँगा'

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008 (15:26 IST)
- कैलाश नार
बीते सन 1974 की कुहरीले लिहाफ में लिपटी वह सर्द शाम अभी तक मेरी यादों की दराज में दुबकी हुई है विस्मृति की धूल उसे बुहार नहीं पाई है। और न ही ऋषिकेश के उस सुरम्य गंगातट पर अवस्थित आश्रम को, जहाँ डूबते सूरज की परछाई लहरों पर अपना अक्स बिखेरते, उस विशाल कक्ष के मरमरी फर्श पर किसी रोशन राहतीर की तरह बिखर गई थी। लकड़ी की चौकी पर उन लम्हों में वे स्तब्ध से बैठे रह गए थे।

सिर्फ वे ही नहीं तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. श्यामाचरण शुक्ल, उनके शिक्षामंत्री चित्रकांत जायसवाल, मेरी पत्नी दीप्ति नारद और मैं, सिर्फ यही चार व्यक्ति दिसंबर की उस डूबती सांझ महेश योगी के उस ठिकाने पर थे, तब आश्रम बन ही रहा था। श्यामाचरणजी ने उनसे सवाल किया था- 'ध्यान योग में आपकी परिकल्पना क्या है? क्या वह धर्म की ही एक अनुभूति है।'

महेश योगी क्षण भर खामोश रहे, फिर मुस्कान उनके होठों पर चस्पा हो आई थी। सम्मोहित कर देने वाले स्वर में उन्होंने कहा था- 'धर्म को सुनकर नहीं जाना जा सकता। वह तो सिर्फ एक साक्षात्कार है। हाँ ध्यानयोग उसकी एक अनुभूति है। धर्मशास्त्रों में तो नहीं ही है, शब्दों में बिलकुल नहीं। इसलिए मैं नीलगगन में शून्य समाधि की बात करता हूँ तब उसका अर्थ स्पष्ट है कि अपने अंतर में झाँको...।'

इसी अंतरयात्रा के मुसाफिर महेश प्रसाद वर्मा यानी महेश योगी ने गत दिवस जब अपनी धरती से हजारों मील दूर अपनी आखिरी साँस ली, तब वह उनके देश भारत तथा खासकर जबलपुर के लिए कभी न भरने वाला शून्य था। शुरुआती जिंदगी में यहाँ के एक रक्षा प्रतिष्ठान गन कैरेज फैक्टरी में द्वितीय श्रेणी कर्मचारी थे। लेकिन जब वे स्वामी ब्रह्मानंद के संपर्क में आए तो फिर जैसे उनके जीवन का संपूर्ण अर्थ ही बदल गया।

अध्यात्म पथ के अपने दूसरे हमसफर और लगभग हम उम्र जबलपुर के ही आचार्य रजनीश से नितांत उलट उन्होंने योरप के विभिन्न देशों में योग की, विशेषकर सिद्धियों की कक्षाएँ खोलीं, उनसे प्राप्त धन से वहाँ भारतीय औषधियों के कारखाने और उनकी बिक्री से हासिल आर्थिक हौसले से भारत में सैकड़ों स्कूल खोले। जहाँ आज भी वेदांत की शिक्षा देते हैं। जबलपुर के पास सिहोरा में वे दुनिया की सबसे बड़ी इमारत बना रहे थे, जो सुरक्षा कारणों से आज भी अपने निर्माण के अधबीच में है।

उनकी परिकल्पना थी कि ध्यानयोग में संपूर्ण रूप से दीक्षित व्यक्ति में सुपरमैन- पुरुषोत्तम बनने की अपूर्व क्षमता है। जरूरत है तो सिर्फ अपनी अंदरूनी ताकत पहचानने की। इसीलिए वे कहा करते थे कि अंधेरा लाख-लाख वर्ष पुराना हो तो भी नया से नया और छोटा से छोटा दीपक भी उस कालिख को तोड़ देता है। ज्योति अपूर्व क्षमता से भरी है। वह बुझ-बुझकर भी बुझ नहीं पाई है। हजारों बार बुझाई गई है, मगर बुझ सकती नहीं।

सत्य हार-हार कर भी नहीं हारता है और असत्य जीत-जीत कर भी हार जाता है। 'मेरे न होने से कुछ नुकसान नहीं होगा।' हम सबको विदा करते हुए महेश योगी ने चौंतीस वर्ष पहले उस धुंधभरी सांझ में कहा था- 'मैं नहीं होकर और भी ज्यादा प्रगाढ़ हो जाऊँगा।' महर्षि महेश योगी होने का यही सच है। वे महाशून्य में निलय होने के बाद और भी अधिक प्रासंगिक और भी ज्यादा प्रगाढ़ हो गए हैं।

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