एक चिट्‍ठी हिन्दी प्रेमियों के नाम!

-प्रभु जोश

प्रिय महोदय,
आप सब अपने-अपने टेलीविजनों पर रोज देख रहे होंगे कि इन दिनों एक विज्ञापन में देशभक्ति से भरे आदमी का गुस्सा उफनकर बाहर आता है, जिसमें वह कहता है, 'देश बदल रहा है, भेष कब बदलोगे'? उसका वश नहीं चलता, वरना भेष नहीं बदलने वाले को वह खुद ही ऐसे पीटता जैसे कि वह क्रिकेट के मैदान में अपने बल्ले से गेंद को पीटता है। लेकिन, वह भेष न बदलने वाले को कारपार्किंग के चौकीदार से पिटता हुआ, बताता है।

एक होर्डिंग शहर में कई दिनों तक दिखता रहा, जिसमें वह इस शहर के नामुरादों को ललकारता रहा कि 'आखिर इन्दौर कब तक चाय-पोहे पर अटका रहेगा?' मतलब यह कि अब मैक्डोनाल्ड तो आ ही चुका है न!

मित्रो! अब आप बहुत जल्दी ही टेलीविजन के पर्दे और अखबारों के पन्नों पर देश को विकास के रास्ते पर ले जाने वाले आदमी के गुस्से से उफनती एक नई धमकी पंच लाइन की तर्ज पर देखने-पढ़ने के लिए तैयार रहिए वह होगी- 'देश की आशाएँ बदल रही हैं, (नामुरादों) भाषाएँ कब बदलोगे?'

  हिंदी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिन्दुस्तान के हित में बहुत जरूरी हो गया है। यह काम देश-सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वरना तुम्हारा देश सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा      
कहने की जरूरत नहीं कि हम भारतीय नामुरादों को भाषाएँ बदलने के एक खामोश षड्यंत्र में शामिल कर लिया गया है। और विडम्बना यह कि दुर्भाग्यवश हम इसके लिए धीरे-धीरे तैयार भी होने लगे हैं।

अँगरेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था- 'अँगरेजों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत जरूरी है। और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ धकेल देते हैं'।

ठीक इसी युक्ति से हिंदी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिन्दुस्तान के हित में बहुत जरूरी हो गया है। यह काम देश-सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वरना तुम्हारा देश सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणामस्वरूप वे हिंदी को विदा कर देश को ऊपर उठाने के काम में जी-जान से जुट गए हैं।

ये हिंदी की हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है। वे कहते हैं कि हिंदी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइए। 'प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिजम'। अर्थात बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है बल्कि, 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हिंदी को हिंग्लिश होना ही है। और हिंदी के कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत इरादतन और शरारतन किया जा रहा है।

बहरहाल, वे कहते हैं कि इसका एक ही तरीका है कि आप अपने अखबार की भाषा में, हिंदी के मूल दैनंदिन शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अँगरेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में (शेयर्ड-वकैब्युलरी) की श्रेणी में आते हैं। जैसे कि रेल, पोस्टकार्ड, मोटर, टेलीविजन आदि-आदि। यानी कुल मिलाकर जिस भी हिन्दी शब्द की आप अँगरेजी जानते हैं, उस हिन्दी के शब्द को हटाकर उसकी जगह अँगरेजी का इस्तेमाल करना शुरू कर दीजिए। अंततः धीरे-धीरे उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल-भाषा के केवल कारक भर रह जाएँ। क्योंकि कुल मिलाकर, रोजमर्रा के बोलचाल में बस हजार-डेढ़ हजार शब्द ही तो होते हैं।

भाषा को परिवर्तित करने का यह चरण 'प्रोसेस ऑफ डिसलोकेशन' कहा जाता है। यानी की हिंदी के रोजमर्रा के मूल शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।

ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे 'स्नोबॉल थ्योरी' काम करना शुरू कर देगी- अर्थात बर्फ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे एक-दूसरे से घुल-मिलकर इतने जुड़ जाएँगे कि उनको एक-दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। यह 'थ्योरी' (सिद्धांत की) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अँगरेजी के शब्द, हिंदी से इस कदर जुड़ जाएँगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा।

  किसी भी देश की संस्कृति के तीन बाहरी तौर पर पहचाने जाने वाले मोटे-मोटे आधार होते हैं भाषा, भूषा और भोजन। इन तीनों की अराजक होकर तोड़ते ही हम नए सांस्कृतिक उपनिवेश बन जाएँगे। यह प्रक्रिया शुरू कर दी गई है      
इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अँगरेजी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात 'इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेजेज'। मसलन- आउट ऑफ रीच/बियांड डाउट/नन अदर देन/ आदि-आदि। कुछ समय के बाद लोग हिंदी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जाएँगे। उदाहरण के लिए हिंदी में गिनती स्कूल में बंद किए जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रुपए दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पाएगा, जब तक कि उसे अँगरेजी में 'सिक्सटी एट' नहीं कहा जाएगा। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अखबार से उठाकर दे रहा हूँ।

'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किए हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।'

इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट-माध्यम से पढ़ते रहने के बाद जो नई पीढ़ी इस किस्म के अखबार पठन-पाठन के कारण बनेगी, उसकी यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाए कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जाएगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूजन ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात हिंदी की जगह अँगरेजी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म।

हिंदी को इसी तरीके से हिंदी के अखबारों में 'हिंग्लिश' बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में अधिकांश हिंदी भाषी लोग और विद्वान भी लोग इस सारे सुनियोजित एजेंडो को भाषा के 'परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया' ही मानने लगे हैं और हिन्दी में इस तरह की व्याख्या किए जाने का काम होने लगा है। गाहे-ब-गाहे लोग बाकायदा अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम-प्रज्ञा के सहारे ही वे इस सच्चाई को सामने रख रहे हों कि हिन्दी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है।

एक भली चंगी भाषा से उसके रोजमर्रा के साँस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे 'बोली' में बदल दिए जाने की 'क्रियोल' कहते हैं। अर्थात हिंदी का हिंग्लिश बनाना एक तरह का उसका 'क्रियोलीकरण' है। और 'कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म' के हथकंडों से बाद में उसे 'डि-क्रियोल' किया जायेगा। अर्थात्‌ विस्थापित करने वाली भाषा को मूल भाषा की जगह आरोपित करना।

भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले और अंतिम चरण को कहा है कि 'फायनल असाल्ट ऑन हिंदी'। बनाम हिंदी को 'नागरी-लिपि' के बजाय 'रोमन-लिपि' में छापने की शुरुआत करना। अर्थात हिंदी पर अंतिम प्राणघातक प्रहार। बस हिंदी की हो गई अन्त्येष्टि। चूँकि हिंदी को रोमन में लिख-पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में वह नितांत अपठनीय हो जाएगी। हिंग्लिश को 'रोमन-लिपि' में छाप देने का श्रीगणेश करना। यही कहा जाता रहा है, भाषा को पहले 'क्रियोल' बनाने के बाद 'डि-क्रियोल' करना। अब यह काम भारत में होने जा रहा है, जिसकी शुरुआत कोंकणी को रोमनलिपि में लिखे जाने के निर्णय से हो चुकी है। इसी युक्ति से गुयाना में, जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते थे 'डि-क्रियोल' कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया है।

यह आकस्मिक नहीं है कि इन दिनों तो हिंदी में अँगरेजी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने विदेशी पूँजी को पचाकर मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी 'नागरी लिपि' को बदलकर 'रोमन' करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब तन-मन और धन के साथ इस तरफ कूच कर रहे हैं।

उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेंडा बना लिया है। क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में 'रोमन लिपि' की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है। यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है। जी हाँ, कम्प्यूटर माउस की पीठ पर चढ़कर। यही काम त्रिनिदाद में इसी षड्यंत्र के जरिए किया गया है।

बहरहाल, किसी भी देश की संस्कृति के तीन बाहरी तौर पर पहचाने जाने वाले मोटे-मोटे आधार होते हैं भाषा, भूषा और भोजन। इन तीनों की अराजक होकर तोड़ते ही हम नए सांस्कृतिक उपनिवेश बन जाएँगे। यह प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। जिसमें भारतीय भाषा, भूषा और भोजन को निबटाया जा रहा है। निस्संदेह इसके चलते बहुत जल्द हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर फिर एक नया विज्ञापन आयेगा - 'देश का ढंग बदल रहा है, कमबख्तों रंग कब बदलोगे?'

इसके बाद भारतीय नागरिकों की 'कलर्ड कास्ट' को कहा जाएगा अपनी आने वाली नस्ल को गोरा बनाने के लिए दौड़ो और अपनी नस्ल का रंग गोरा करने के लिए आज ही जीन बैंक से शुक्राणुओं की खरीदी के लिए अपना नाम लिखाओ। यह भूमंडलीकरण की अंतिम सीढ़ी होगी।

क्या आप इस सीढ़ी तक पहुँचने के लिए तैयार हैं? वक्त निकालकर इस विषय पर कुछ सोचिए...और अगर अपने स्तर पर भी जितनी प्रखर असहमति लिखकर और मौखिक भी प्रकट की जा सकती है, प्रकट करिए ताकि आप अपनी भाषा के प्रति जरूरी ऋण अदा कर सकें।

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