99 पर आउट हो गया ज़िंदगी का हरफनमौला खिलाड़ी

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स्वभाव से अलमस्त, ख्वाहिशों से लबरेज़ और अपनी मर्ज़ी के मालिक, मशहूर पत्रकार व लेखक खुशवंतसिंह आज हमेशा के लिए इस जहां से कूच कर गए। दुनिया के मुताबिक वो चले गए, उस जहान में, जहां के मालिक को उन्होंने कभी सर झुकाकर सलाम नहीं किया। कभी उसकी परस्तिश नहीं की। कभी उसका वजूद तस्लीम नहीं किया। ज़िंदगी भर कई दुश्वारियां झेलीं, कई इल्ज़ाम बर्दाश्त किए, लेकिन बिल्कुल इस अंदाज़ में जिए कि-

रख ही दिया जब हाथ कांटों की नोक पर,

फिर क्या हिसाब रखना, बदन में लहू कितना है।


खुशवंतसिंह ने 2 फरवरी 1915 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के हदाली (अब पाकिस्तान में) में आँखें खोलीं। लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ाई ख़त्म करने के बाद लंदन से ही कानून की डिग्री भी हासिल कर ली। इसके बाद लाहौर में वकालत की प्रेक्टिस भी करने लगे। शादी कंवल मलिक से हुई और बेटे राहुलसिंह व बेटी माला के पिता बने।

एक सहाफ़ी के तौर पर खुशवंतसिंह का ख़ासा नाम रहा। अपनी सहाफ़त से उन्होंने ख़ूब मक़बूलियत हासिल की। 1951 में आकाशवाणी में क़दम रखा और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना' का संपादन किया। अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया' के पहले हिंदुस्तानी संपादक, एएस रमन के बाद यह ज़िम्मेदारी सम्हालने संपादक के औहदे पर मुंबई पहुंचे, तो जैसे चमत्कार कर दिया।

बतौर संपादक उन्होंने कई साहित्यिक और समाचार पत्रिकाओं में सेवाएं दीं। सच को सच कहा और दिल खोलकर कहा, जो लिखना चाहा, लिखा। अपनी बिंदास और बेबाक छवि के लिए लोगों ने उन्हें 'ओल्ड डर्टी मैन' तक कह डाला। इस पर भी उन्होंने कभी कोई एतराज दर्ज नहीं करवाया। उन्होंने साफ कहा कि किसी भी धर्म या मजहब पर मेरा यक़ीन नहीं है, उल्टा मैं तो मज़हब के खिलाफ़ लिखता रहता हूँ। सेक्स को लेकर भी वक्त-वक्त पर खुल्लम-खुल्ला अपनी राय ज़ाहिर करता रहा हूँ। मैंने शराब की भी न केवल पैरवी की है, बल्कि उसकी तारीफ़ करने वालों में शुमार रहा हूँ। अब इस पर लोगों को मुझ पर तंज़ करने में मज़ा आता है, तो आया करे, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

उनका मानना था कि अंक-दर-अंक पाठकों को चौंकाते रहना चाहिए। उन्हें भरपूर सूचनाएं भी उपलब्ध करवाई जानी चाहिए और उत्तेजना से भर दिया जाना चाहिए। उनकी यही रणनीति रही, जिसके चलते 65 से 70 हज़ार प्रसार संख्या वाला यह वीकली क़रीब 4 लाख तक पहुंच गया। उन्होंने लोगों की नब्ज़ को पहचाना और लगातार नए प्रयोग किए। 'सिंगल माल्ट' व्हिस्की के दीवाने खुशवंत सिंह ने वीकली में छपने वाली शादी-ब्याह की तस्वीरों का प्रकाशन बंद कर एक विचार परोसते हुए गोवा के समुद्री किनारों पर इतराती बिकनी पहनी लड़कियों की तस्वीरों छापना शुरू किया। इससे यह पत्रिका एक विचार और ग्लैमर की पत्रिका के रूप में उभरने लगी। इसके साथ ही साहित्यिक और विचार जगत में इसकी पहचान मज़बूत हुई।

'डेल्ही', 'ट्रेन टू पाकिस्तान' और 'दि कंपनी ऑफ़ वूमन' आदि रचनाओं के जरिए वे अपने प्रशंसकों के बीच हमेशा लोकप्रिय रहे। उनके बेबाक कॉलम कई अखबारों में छपा करते थे। 'न्यू डेल्ही' के संपादक वे 1980 तक थे। 1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के भी संपादक रहे। तभी से वो प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय 'कॉलम' लिखते रहे, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता रहा। 1947 से कुछ सालों तक खुशवंत सिंह ने भारत के विदेश मंत्रालय में विदेश सेवा के महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।

विविध आयामी योगदान के तहत खुशवंत सिंह ने इतिहासकार की भूमिका भी निभाई। दो खंडों में प्रकाशित 'सिक्खों का इतिहास' उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है। साथ ही वे राजनीतिक विश्लेषक के रूप में जाने जाते रहे। उन्हें 1974 में 'पद्म भूषण' तथा 2007 में 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया।

रवींद्र कालिया द्वारा स्वयं के एक लेख में उल्लेखित यह बात भी ख़ास जान पड़ती है। कालिया ने खुशवंतसिंह के हवाले से ज़िक्र किया था कि '98वां वर्ष पूरा करने पर उन्होंने अपने स्तंभ 'विद मौलिस टू वर्ड्स वन एंड ऑल' में लिक्खा था- 'मैं 70 सालों से लगातार लिख रहा हूँ, सच यह है कि मैं मरना चाहता हूँ। मैंने काफी जी लिया और अब ज़िंदगी से ऊब गया हूँ। ज़िंदगी में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे करने की मेरी इच्छा हो। जो करना था, कर चुका। अब, जब कुछ करने को नहीं बचा, तो ज़िंदगी से चिपके रहने का क्या मतलब?' वहीं इसके बरअक्स, पूछे जाने पर कि 'इस उम्र में सबसे ज्यादा किस चीज़ की कमी महसूस करते हैं?', उनका जवाब था- 'बढ़िया सेक्स की।'

इतना ही नहीं, वक्त के पाबंद खुशवंत सिंह एक फिक्स टाइम पर अपनी पसंदीदा व्हिस्की के दो पैग लेने के भी आदी थे। किसी के मेहमान होते और ये अंदेशा रहता कि वहां उनकी पसंद की व्हिस्की मिलना मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में अपना ब्रांड साथ ही लेकर चलते थे। घर में हों या पार्टी में, खाना जल्द ही खा लिया करते थे। फिर सुबह जल्दी उठकर लिखने में मुब्तिला हो जाया करते थे।

दुनिया के बेशतर अदीबों की तरह बहुत पहले ही उन्होंने अपना मर्सिया ख़ुद तैयार कर लिया था। मर्सिया का उन्वान (शीर्षक) दिया, 'सरदार खुशवंत डेड' और आगे लिक्खा कि 'गत शाम 6 बजे सरदार खुशवंतसिंह की अचानक मृत्यु की घोषणा करते हुए अफसोस हो रहा है। वह अपने पीछे युवा विधवा, दो छोटे-छोटे बच्चे और बड़ी संख्या में मित्रों और प्रशंसकों को छोड़ गए।'

कुछ बरस पहले उन्होंने अपना एक कत्बा-ए-क़ब्र (समाधि लेख) भी तैयार किया था, जिस पर लिखा था- 'यहां ऐसा मनुष्य लेटा है, जिसने इंसान तो क्या, भगवान को भी नहीं बख्शा, उसके लिए अपने आंसू व्यर्थ न करो, वह एक प्रॉब्लमेटिक आदमी था। शरारती लेखन को वह बड़ा आनंद मानता था, ख़ुदा का शुक्र है कि वह मर गया।'

उनके घर के दरवाज़े पर एक अजीबो-ग़रीब तख्ती टंगी थी, जिस पर लिक्खा था- 'अगर आप आमंत्रित नहीं हैं, तो घंटी न बजाएं।' लिहाज़ा, उनके चाहने वाले न जाने कितने ही अनामंत्रित लोग, उनसे मिलने की हसरत दिल में लिए रह गए होंगे। और उनकी रुख़सती पर अब दिल ही दिल में यही कह रहे होंगे कि, नहीं बजाएंगे खुशवंत साहब, अब आपके दरवाज़े की घंटी कभी नहीं बजा सकेंगे।

खुशवंत सिंह, ज़िंदगी के शतक से महज़ एक क़दम दूर, 99 पर ज़रूर आउट हो गए। लेकिन जिस अंदाज़ में उन्होंने ज़िंदगी की पारी खेली, हक़ीक़त में वो 99 सालहा पारी कई शतकों पर भारी है। अपनी ज़िंदगी को जिस अंदाज़ में उन्होंने जिया, उसे जीने का कई ज़िंदगियां बस ख्वाब ही देख सकती हैं, जी नहीं सकतीं।

मिलेंगे हर हाल में तुझसे ऐ जानेवफ़ा,

जिए तो ज़िंदगी की तरह, मरे तो ख़ाक बनकर।

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