जमीन और जड़ों से जुड़े संपादक

अजितकुमार
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हिंदी पत्रकारिता को उसके स्थानीय अथवा देशी धरातल से ऊपर उठा, आधुनिक रूप देने में अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी और राजेंद्र माथुर जैसे संपादकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इसमें उन्हें यदि अंग्रेजी भाषा और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति की सम्यक जानकारी ने सहायता दी तो उन्हें यह ध्यान भी रहा कि वे अपनी जमीन और जड़ों से जुड़े रहें।

अज्ञेय तथा जोशी की शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान की थी और माथुर ने अंग्रेजी की ऊँची डिग्री हासिल की थी - इसके बावजूद वे इस मामले में सचेत रहे कि हिंदी पत्रकारिता करने में यह सब उनके आड़े न आए। राजेंद्र माथुर ने 'नईदुनिया' और 'नवभारत टाइम्स' के अलावा किसी अंग्रेजी अखबार के लिए काम किया हो यह जानकारी तो मुझे नहीं है लेकिन अज्ञेय और जोशी दोनों हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी पत्रों के संपादन से भी संयुक्त रहे थे लेकिन तीनों की प्रतिबद्धता भारतीय जन तथा समाज के प्रति आद्यंत बनी रही जिसे अज्ञेय और जोशी के साहित्य कर्म में भी देखा जा सकता है तो इसे माथुर की संपादकीय टिप्पणियों के संकलन भी प्रमाणित करते हैं।

अज्ञेय की शालीन गंभीरता, माथुर की प्रखर वस्तुपरकता और जोशी की खिलंदड़ विनोदप्रियता को भी उनकी शैलीगत विशेषताओं के किन्हीं लक्षणों की भांति अलग से पहचाना जा सकता है। फिर जिस समय वे हिंदी पत्रकारिता में संलग्न थे मुद्रण और प्रकाशन की तकनीकें उतनी विकसित नहीं थीं। इसके बावजूद इन तीनों ने अपने विश्वबोध के नाते हमारी पत्रकारिता को ऐसा पुष्ट आधार प्रदान किया कि वह सचमुच इक्कीसवीं सदी में भरोसे के साथ दाखिल हो सके।

आज हिंदी के पत्रों की आवाज भले ही उतनी बुलंद न हो जितनी की तथाकथित राष्ट्रीय कहलाने वाले अंग्रेजी अखबारों की है लेकिन यदि हिंदी के अनेक पत्र देश की धड़कन समझने में और उसके मानस को प्रतिबिंबित करने की सामर्थ्य जुटा पाए हैं - केवल मध्य अथवा उच्च वर्ग तक सीमित रहने की जगह आम आदमी तक पहुँचे हैं।

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भले ही उन्हें स्थानीय या स्वामियों के दबाव के कारण कभी-कभी हल्का या अनप्रोफेशनल हो जाना पड़ता हो लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर उनमें कोई आंतरिक जीवनशक्ति नजर आती ह। कमजोर पड़ गई रीढ़ की हड्डी के बावजूद उसकी सजीवता का श्रेय प्रमुखतः इन संपादकों और इनकी मशाल को लेकर आगे चलने वाले आलोक मेहता और ओम थानवी जैसे कतिपय अन्य संपादकों को भी दिया जाना चाहिए।

उम्मीद तो यह थी कि पत्रकारिता का विधिवत प्रशिक्षण हासिल करने के बाद हिंदी अखबारों में आने वाली नई पीढ़ी इस मुहिम को आगे बढ़ाएगी लेकिन प्रिंट मीडिया में ऐसे नाम अभी कम ही उभरते नजर आए हैं जबकि इंटरनेट पर ब्लॉग अथवा पोर्टल आदि के माध्यम से उपलब्ध चर्चाओं का दायरा इस मामले में अधिक उत्तेजक और संभावनापूर्ण प्रतीत होता है।

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