मेरी यह मान्यता है कि हिंदी का कोई भी नया कवि अधिक से अधिक ऊपर उठने का महत्वाकांक्षी होगा। इसे और सबों से अधिक तीन विषयों में अपना विकास एक साथ करना होगा।
1. उसे आज की, कम से कम अपने देश की, सारी सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक गतिविधियों को समझना होगा अर्थात वह जीवन के आधुनिक विकास का अध्येता होगा। साथ ही, विज्ञान में गहरी और जीवंत रुचि होगी। हो सकता है इसका असर यह हो कि वह कविताएँ कम लिखें मगर जो भी वह लिखेगा व्यर्थ न होंगी।
2.संस्कृत, उर्दू, फारसी, अरबी, बांग्ला, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाएँ और उनके साहित्य से गहरा परिचय उसके लिए अनिवार्य है। (हो सकता है कि उसका असर यह हो कि बहुत वर्षों तक वह केवल अनुवाद करे और कविताएँ बहुत कम लिखे या बहुत अधिक लिखे जो नकल सी होगी, व्यर्थ सिवाय मश्क के लिए लिखने के या कविताएँ लिखना वह बेकार समझे) इस दिशा में अगर वह गद्य भी कुछ लिखेगा तो वह स्थायी हो सकता है।
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3. तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, मतिराम, देव, रत्नाकर और विद्यापति को, साथ ही नजीर और मीर, गालिब, दाग, इकबाल, जौक और फैज के चुने हुए कलाम और उर्दू के क्लासिकी गद्य को अपने साहित्यगत और भाषागत संस्कारों में पूरी-पूरी तरह बसा लेना इसके लिए आवश्यक होगा।
कला के विभिन्न अंगों के बारे में उसकी जानकारी उतनी ही गहरी होनी होगी जितनी छंद के बारे में, स्टाइल के बारे में, सबसे बड़ी चीज ये कि वह विनम्र होना सीखेगा, उसका व्यापक और गहरा अध्ययन स्वयं उसको सिखाएगा, अपनी भाषा, संस्कृति और विशेषकर अपने को लेकर। ये बातें मैंने आज नहीं कल के होने वाले महाकवि के लिए जरूरी समझी हैं।
साधारण रूप से केवल अच्छे और केवल बहुत अच्छे होने वाले कवियों को इन लाइंस पर इन चीजों पर सोचने की बहुत आवश्यकता नहीं। इनको ये चीजें भटका भी सकती हैं और अभी 10-20 साल तक इन चीजों का जिक्र करना भी एक फिजूल सी बात है। हर दृष्टिकोण के लिए एक पृष्ठभूमि और वातावरण होता है वह अभी चौथाई सदी बाद आएगा।
बल्कि मुझे अणु मात्र भी संदेह नहीं कि वह अगर हम अणुबमों के युद्ध में खत्म न हो गए तो वह आकर रहेगा तब तक भाषा, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा पद्धतियाँ बदल चुकी होंगी। और उनके उसूल क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना नया महाकवि और महान कलाकार सहज ही जन्म न ले सकेगा। अस्तु...
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असल में, महान प्रतिभा अनुभूतियों के गहरे स्तरों तक पहुँचने में स्वयं सक्षम हो जाती है। जो कार्य औरों के लिए असंभव और अत्यंत होते हैं, वह उसके लिए सहज ही द्रुततम विकास का आनंद देने वाले हैं। कुछ... के समान है इसीलिए यह प्रत्यक्ष है। उपर्युक्त दिशाओं में विकास का प्रयत्न आज हमारे लिए अचिंत ही नहीं उपहासास्पद भी लग सकता है, कवि के दृष्टिकोण से। अभी तो हम पंजाब में हिंदी रक्षा आंदोलन जैसे तंग दौर से गुजर रहे हैं जो काशी की तंग गलियों से भी कहीं अधिक तंग और संकरा है। अभी तो अराजकता (मोटे तौर से जिसे प्रयोगवाद कहा जा सकता है, इसमें अपवाद भी हैं काफी) ने हमें गहरे धुंधलके में डाल रखा है।
भाषा की अवहेलना किसी भी रचना को सहज ही साहित्य के क्षेत्र से बाहर फेंक देती है और शिल्प की अवहेलना कलात्मकता के क्षेत्र से। अब तक शिल्प व भाषा की साधना में जो कुछ प्राप्त हो चुका है उससे अज्ञात अक्षम्य है। उसी को दोहराकर प्रस्तुत करना कोई मायने नहीं रखता उससे आगे जाने का संघर्ष ही सजीव साहित्य और सफल कविता कहलाई जा सकती है, जो कुछ दिनों याद रखी जा सके। मुक्त छंद और गद्य में कविता लिखने वाले को छंद और गद्य के सौंदर्य से अच्छी तरह परिचित होना चाहिए। मुहावरे की गलती मैं अक्षम्य मानता हूँ।
मेरा खयाल है कि अब तक के रचे साहित्य में बहुत कम ऐसा है जो कायम रहने वाला है इसका महत्व ऐतिहासिक ही रहेगा, जीवंत नहीं। जीवंत साहित्य में निराला कुछ पंत, नरेंद्र और थोड़ा सा बच्चन कहीं-कहीं से थोड़ा मैथिलीशरण, फुटकर चीजें औरों की। बचा यही रहेगा बाकी लोकगीत के श्रेष्ठ पद होंगे, जिनके अध्ययन और प्रचार की तरफ विशेष ध्यान होगा और साथ ही उर्दू का खासा हिस्सा उस समय जिंदा होगा और पिछला रीतिकाल का भी, अलावा महाकवि नवरत्नों के उर्दू और हिंदी का साहित्य एक हो जाएगा। गद्य उर्दू के अधिक निकट होगा। बहुत कुछ बदलेगा।
अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, फारसी, अरबी, बंगाली, जर्मनी हमारे लिए अत्यंत आवश्यक भाषाएँ हो जाएँगी और इनके सीखने वालों के लिए ये विषय सबसे आसान होंगे। भाषाशास्त्र एक अनिवार्य विषय होगा जिसकी शिक्षा-प्रणाली कल्पनातीत रूप से आज से भिन्न होगी वह सब तभी संभव होगा... ले सकेगी, और अपना भविष्य अपने आदर्शों के अनुरूप बना सकेगी।
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आशु कवि होना साहित्य में कोई मामूली घटना नहीं होती। एक अच्छा सुथरा आशु कवि होना। स्वाभाविक और सच्चा आशु कवि। आशु कविता करने का यह मतलब है कि तत्क्षण किसी भी विषय पर सुनने-सुनाने योग्य पद-रचना प्रस्तुत कर देना। महत्वपूर्ण पॉइंट है रचना की तत्क्षणता और क्योंकि इतने से काम नहीं चलेगा-उसका सुनने-सुनाने योग्य होना।
ऐसे कवि बिरले ही हुए हैं जो आशु कवि भी रहे हों और महान कवि भी। सामंत युग के दरबारी कवियों में संकेत मात्र पर किसी भी विषय पर तुरंत प्रभावी पद्य रचना प्रस्तुत कर देना कमाल की बात समझी जाती थी। और यह कमाल की बात है भी। पर यहाँ सोचने की बात यह है कि क्या कवि, एक सच्चा कवि, अपनी विषय वस्तु के लिए अन्य जनों का (चाहे विशिष्ट अन्य जनों का) मुँह जोहता है?
जीवन के नाना राग-विराग, उसके अपने सुख-दुख, हर्ष-विषाद के क्षण उसे मौलिक रचना के लिए उद्वेलित नहीं करते... दरबारी कवियों की एक यही परवशता थी। कवि को अपनी रचनाधर्मी शक्तियों को हर समय तैयार रखना पड़ता था मानो एक कसा-कसाया घोड़ा दरवाजे पर तैयार खड़ा है। हुकुम होते ही उस पर चढ़े, एड़ लगाई और हवा से बातें करने लगे।
या यूँ कहो कि कवि एक मशीन था। जिस जिसने चाहा मनचाहा बटन दबाया वैसा राग निकलने लगा या वैसा तार बजने लगा। एक कवि ये करतब दीर्घ, अटूट अभ्यास, चारों तरफ की गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी, दूसरों का मनोरंजन करने की सहज प्रवृत्ति और सैकड़ों कविताएँ हर समय कंठस्थ रख सकने की क्षमता के बलबूते पर दिखा सकता है। सच्चे कवि के लिए ये करतब दिखाना जरूरी नहीं। न ही उसके लिए इसकी कोई अनिवार्यता है।
वह किसी सामंत के अधीन नहीं है। वह स्थितियों को अपनी आँखों देखता, अपनी अनुभूति की रोशनी में उन्हें समझता, अपने निजी तर्क से उन्हें परखता और उसे अपनी निजी शैली में प्रस्तुत करता है। दूसरों की मुँहदेखी बात कहना उसकी शान के खिलाफ है। सामंती युग में भी मर्यादावान श्रेष्ठ कवि अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न रखने के लिए यदि जब-तब कुछ लिखते भी थे तो उमें उनकी अपनी प्रतिभा थी।
मौलिक छाप और शैली की गरिमा, प्रभावकारिता स्पष्ट लक्षित होती थी। और उनकी बात हल्का मनोरंजन ना होकर कोई मार्मिक उक्ति या सचमुच ही एक यादगार तोहफा हो जाती थी। ऐसे अनेक कवियों में अमीर खुसरो, फैजी, स्वयं गालिब या बिहारी, भूषण के नाम सहज ही याद आ जाते हैं। हमारे अपने युग में बहुत कम लोग जानते होंगे स्वयं त्रिलोचन जी आरंभ में एक ललकार भरे आशु कवि थे वर्षों तक। बाद में स्वयं इसे नटों का खेल समझकर छोड़ दिया और अपनी निजी सच्ची अनुभूति की कविता पर उतर आए।