साहित्य से दूर, बचपन है मजबूर

सोमवार, 29 नवंबर 2010 (17:17 IST)
कुमुद अजय मारू
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आज के बच्चों की नजर में साहित्य एक पिछड़ी हुआ चीज बनकर रह गया है। इसके लिए बच्चे खुद जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि आज का परिवेश ही जिम्मेदार है। अब वो समय नहीं रहा, जिसमें अभिभावक ज्यादा से ज्यादा समय अपने बच्चों को दें। उन्हें कहानियाँ सुनाएँ, साहित्य की बातें करें।

बचपन में सुनी दादी-नानी की कहानी, परियों का देश, उसकी राजकुमारी, सफेद घोड़े पर भटकता हुआ राजकुमार... प्यास कौवा, प्यास बुझाने के लिए मटके के कम पानी में कंकर डालकर अपनी प्यास बुझाता कौवा...। कछुए, खरगोश या फिर बंदर और मगरमच्छ की कहानी पढ़ते-सुनते बड़ी हुई पीढ़ी के लिए जीवन के अनुभव और सीख सभी कहानियों के माध्यम से मिलते रहे हैं।

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कभी घर के बुजुर्गों से सुनी कहानियाँ तो कभी खुद किसी पत्रिका में, किताब में या फिर चित्रकथा में पढ़ी कहानी उस पीढ़ी के लिए सुखद स्मृति है। इन्हीं कहानियों के सहारे उस पीढ़ी ने जीवन को करीब से जाना, उसकी पेचिदगियाँ और उसकी खूबसूरती को इन्हीं के सहारे समझा। समय बदला और कहानियों का, साहित्य का दौर कहीं गुम हो गया। मोबाइल, टीवी और इंटरनेट के दौर में कहानियाँ गुजरे जमाने की चीज हो गई... साहित्य क्यों पढ़ें और पढ़कर भौतिक रूप से क्या हासिल किया जा सकेगा, जैसे सवालों में बाल साहित्य का उद्देश्य और लाभ दोनों ही कहीं गुम हो गए।

दरअसल अब तक हम साहित्य को मनोरंजन के साधन से ज्यादा और कुछ समझ ही नहीं पाए... जबकि हकीकत ये है कि साहित्य का लक्ष्य और उसका प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है...जितना आमतौर पर समझा, देखा और जाना जाता है। ये कहानियाँ बचपन के बोध को जीवित रखते हुए अनजाने में हमारे अचेतन मस्तिष्क को बुद्धिमानी का आहार देती है, औऱ साहित्य का रूप लेकर हमारे चरित्र निर्माण में सहायक बनी।

बचपन में सुनी बेजोड़ कहानियाँ कब हमें जीवन में मार्गदर्शन देने लगती है, हम खुद भी नहीं समझ पाते हैं। हर सभ्यता के पास अपनी कहानियों का भंडार होता है। ऐतिहासिक, नीति-कथा, बोधकथा, लोककथा और भी बहुत सारी तरह की कहानियाँ, जिसे बच्चों को सुनाया जाता रहा है। जिससे हम अनजाने में समझ, दायित्व बोध, अनुशासन, कला, संस्कृति, संस्कार और संवेदनशीलता से परिचित हो जाते थे।

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बचपन में पढ़ा बाल-साहित्य -चंदामामा, नंदन, चंपक, बालहंस का जिक्र आते ही मानो बचपन फिर से जी उठता है। उस दौर में साहित्य पढ़ना गर्व का विषय और आनंद की अनुभूति था। साहित्य से समझ विस्तार पाती थी और बचपन में सहजता बोध अंकुरित होता था। मगर आज युग बदला, सोच बदली। मनोरंजन के इतने साधन हो गए कि इस दौर के बच्चों के लिए साहित्य भारी-भरकम शब्द बनकर रह गया।

आज के बच्चों की नजर में साहित्य एक पिछड़ी हुआ चीज बनकर रह गया है। इसके लिए बच्चे खुद जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि आज का परिवेश ही जिम्मेदार है। अब वो समय नहीं रहा, जिसमें अभिभावक ज्यादा से ज्यादा समय अपने बच्चों को दें। उन्हें कहानियाँ सुनाएँ, साहित्य की बातें करें। उनको साहित्य के प्रति जिज्ञासु बनाए, बल्कि अभिभावक का भी अब साहित्य पठन-पाठन के प्रति रुझान कम हो गया है।

प्रचार माध्यमों और आधुनिकीकरण ने बच्चों और बड़ों के बीच दूरी बना दी। रिश्तों से सहजता और अपनापन लगभग खत्म हो गया। रिश्तों में दिखावे ने घुसपैठ कर ली। खुशियाँ भी दिखावे की भेंट चढ़ गई, उन्हें महँगे उपकरणों से तौला जाने लगा। बच्चों की काउंसलर डॉली डिसूजा बताती हैं कि - "जब मैं छोटी थी, तब माँ मुझे हर जन्मदिन पर साहित्य भेंट करती। मेरी हर खुशी के मौके पर वे किताबें लाकर देती। जब माँ ने मुझे पहली बार पुस्तक भेंट की तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मैंने भी उस पुस्तक को बड़े चाव से दो दिन में ही पढ़ डाला, लेकिन अब अभिभावक इस तरह की पहल ही नहीं करते। वे बच्चों को महँगे गेजेट्स तो उपहार में दे सकते हैं, लेकिन किताबें नहीं।"

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आजकल पति-पत्नी दोनों ही कामकाजी हैं। घर-बाहर की जिम्मेदारी में वे इतने उलझे हैं कि - बच्चों के लिए उनके पास समय ही नहीं है। ऐसे में वे बच्चों को भावनात्मक और नैतिक सुख न देते हुए केवल भौतिक सुख-सुविधा और उपहार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। जिससे बच्चों का भौतिक तो हुआ मगर नैतिक विकास की राह से अनजान ही रहा।

संवेदना और संस्कार मिट गए जो कि सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं, अपितु पूरे समाज के लिए बुरा है। अब यह दौर आदर्श और गाथाओं के दौर न रहकर रेस में दौड़ने का दौर हो गया - परीक्षा में ज्यादा अंक आएँगे कि नहीं, कहीं मेरा बच्चा दूसरे बच्चे से पिछड़ तो नहीं जाएगा? - इसी चिंता में अभिभावक और बच्चे दोनों ही साहित्य से विमुख हो रहे हैं।

अपने बच्चों में डॉक्टर, इंजीनियर और मैनेजमेंट प्रोफेशनल तलाशते माता-पिता खुद बच्चों की साहित्य में रुचि को समय की बर्बादी मानते हैं। कुछ नया और अलग बच्चों की पसंद बन गया है। बच्चों से जब पूछा गया कि वे कैसा साहित्य पसंद करते हैं? तो जवाब मिला - साहित्य... ये क्या होता है? या फिर साहित्य...! समय ही कहाँ मिलता है पढ़ने के लिए...? दरअसल यह इस दौर का बचपन है, जहाँ तकनीक ने साहित्य का रूप ले लिया है। समस्या वहाँ से शुरू हुई जब इस मासूम बचपन की दुनिया में बाजार घुसपैठ करने में कामयाब हो गया। साहित्य का स्थान महँगे और हिंसक खिलौने ने ले लिया। इन हिंसक खिलौनों और आधुनिक उपकरणॅं ने बच्चों की मासूमियत और बचपन का बोध दोनों खत्म कर उन्हें समय से पहले ही सयाना बना दिया है।

आज बच्चों की पसंद बाजार तय करता है। बाजार बच्चों में परिपक्व उपभोक्ता तलाशता है। इसलिए आज बच्चों की पसंद साहित्य नहीं साइबर फ्रेंड्स, कंप्यूटर, टीवी, वीडियो गेम और नए फीचर्स के सेलफोन बन गए हैं।

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बदलते दौर ने समाज को पहले से ज्यादा उन्मुक्त बनाया है, जिसका प्रभाव हमारे संयुक्त परिवारों पर पड़ा। एकल परिवारों के प्रचलन ने बच्चों से दादी-नानी का आँचल तो छीन ही लिया। कहानी के माध्यम से संस्कार की जमीन देने वाले बुजुर्ग भी छीन लिए।

फिलहाल ग्लैमरस लुक लिए माता-पिता ने भी साहित्य को आउटडेटेड मानकर उसे बचपन से बाहर निकाल फेंका। हमारे बुजुर्ग किस्से और कहानी के माध्यम से संस्कार, विश्वास, क्षमा भाव, और संवेदना के बीज बालमन पर बोते थे। आज के बच्चों की नजर में इसीलिए साहित्य का वह सम्मान नहीं बचा, जो उनसे पहले की पीढ़ी में रहा। आज के बच्चों की नजर में साहित्य का स्थान गौण हो गया है।

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