थोड़ा घूम-फिर आएँ! चलो, देखें, रात-भर में ओस ने किस तरह से आत्म मोती-सा रचा होगा! फिर जरा-सी आहटों में बिखर जाने पर, दूब की उन फुनगियों पर क्या बचा होगा?
चलो चलकर रास्ते में पड़े अंधे कूप में पत्थर गिराएँ, रोशनी न सही, तो आवाज ही पैदा करें, कुछ तो जगाएँ!
एक जंगल अंधरे का-रोशनी का हर सुबह के वास्ते जंगल। कल जहाँ पर जल भरा था अंधेरों में धूप आने पर वहीं दलदल!
चलो, जंगल में कि दलदल में, भटकती चीख को टेरें, बुलाएँ, पाँव के नीचे, खिसकती रेत को छेड़ें, वहीं पगचिह्न अपने छोड़ आएँ।