वो पर्बतों की खामोश वीरानी में, चुपके-चुपके ख़याल बुनता है वो धीमे-धीमे से खुद से बात करे, वो सहमा-सहमा सा खुद को सुनता है
वो सुर्ख फूलों से शबनम चुरा कर, एक लिफाफे में बंद करके रखे, अपने बचपन पर फिर खुद ही, शर्म से खिलखिला के हँसता है वो दिल-ए-इन्सां जो इतना भोला है, फिर वो कैसे फसाद करता है। कौन बस्ती जला के हट जाए, कौन शहरों में नाग रखता है हीर गाते हुए मासूम होंठों में कौन सिगरेट की आग रखता है नन्हे हाथों से शफ़क़त की अँगुली छुडा कर, कौन संगीन हाथों पे रखता है कैसे बनता है क़तरा-ए-लहू, वो कतरा जो आँखों से गिरता है।
एक तितली ओ चाँद फूलों, झील सुबहों ओ नील शामो इनको कैसे गहन लग गया है एक रंग-ओ खुश्बू की रोशनी का वो चाँद शायद छुप गया है वो पर्बतों की वीरानियों का चुपके-चुपके ख़याल बुनना वो धीमे-धीमे खुद से कहना, वो सहमा-सहमा सा खुद को सुनना
ऐ खुदा! वापस इन्सां का खाली दामन इससे भर दे मेरे खुदा! मेरी नेकी के बदले, एक शाम छोटा सा जादू ही कर दे कोई सुबह मेरे आँगन में ऐसी भी हो, जो रातों को सोए तो हो मुतमईन और लम्हे-लम्हे की कटती हुई ज़िंदगी, मुड़ के देखें तो हमको लगें मुतमईन बारूदों-शोलों का हैवान फिर मेरी बस्ती की राहों को भूल जाए मेरे दौर के इंसा की मासूम आँखें ख़याल बुनना कुबूल जाए....!