दोस्तो, मेरा जन्म जयपुर में हुआ और यहीं मैं पला और बड़ा हुआ। स्कूल के दिनों से ही मैं पढ़ने में बहुत तेज स्टूडेंट नहीं था। और खासकर स्कूल जाने से मुझे बहुत चिढ़ होती थी। सुबह 6.30 बजे स्कूल जाना और दोपहर में 4 बजे तक वापस आना मुझे बहुत बोरिंग काम लगता था।
इसके बजाय मुझे क्रिकेट खेलना बहुत ही अच्छा लगता था। मैं अपने पड़ोस में और चौगान स्टेडियम में जाकर क्रिकेट खेलने में खूब रुचि लेता था और बड़ा होकर क्रिकेटर ही बनना चाहता था। क्रिकेट में मेरी प्रैक्टिस भी खूब अच्छी थी और सीके नायडू ट्रॉफी के लिए मेरा सिलेक्शन भी लगभग हो गया था। पर जब घर पर सभी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने इसके लिए इजाजत नहीं दी। घर पर सभी को यह ठीक नहीं लगा कि मैं क्रिकेट खेलूँ। इस तरह मेरा क्रिकेट छूट गया।
क्रिकेट छोड़ने के बाद मुझे ठीक तरह से ग्रेजुएशन करने को कहा गया। पता नहीं कुछ भारी-भरकम विषय भी मुझे दिला दिए गए ताकि मेरा ध्यान पढ़ाई में ही लगा रहे। वैसे अब मुझे लगता है कि पढ़ाई करने से मुझे बहुत सारी चीजों की समझ मिली वरना मैं किसी काम में आगे नहीं बढ़ पाता। पर ग्रेजुएशन के साथ ही मैंने एक्टिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया। पहले मैं कुछ नए कलाकारों के साथ एक्टिंग सीखने की कोशिश करने लगा। फिर मेरी मुलाकात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के एक शख्स से हुई। वे कॉलेजों में जाकर नाटक किया करते थे। मैं भी उनके साथ उनकी टीम में शामिल हो गया और स्टूडेंट्स के साथ कॉरिडोर में, क्लासरूम में और कैंटीन में ड्रामा करते हुए ही एक्टिंग के प्रति मेरी समझ बढ़ी और मैं इस दिशा में करियर को लेकर गंभीर हुआ।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है।
इसके बाद सीरियल और फिल्में मिलने लगी और फिर इरफान खान अभिनेता हो गए। फिल्मों में भी मैं अपने रोल को लेकर बहुत ज्यादा मेहनत करता हूँ। मुझे लगता है कि काम को दिल लगाकर करना चाहिए। यह बात आप सभी पाठकों के लिए भी जरूरी है। क्योंकि इन दिनों अगर आप दिल लगाकर पढ़ाई करेंगे तो अच्छे नंबरों के साथ अगली कक्षा में जाओगे।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है।
मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो पिताजी के साथ शिकार खेलने जाने की यादें आती हैं। दोस्तो, जब मैं छोटा था तब जयपुर के आसपास घने जंगल थे। इन्हीं जंगलों में मेरे पिताजी हर सप्ताह शिकार के लिए जाते थे। मैं भी बहुत-सी बार उनके साथ गया हूँ। बचपन में मुझे जंगल में रात बिताना बहुत ही रोमांचक लगता था। वैसे बचपन में मुझे शूटिंग बिलकुल भी पसंद नहीं थी। यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा आता था कि पिताजी जानवरों का शिकार क्यों करते हैं। पर यह बात पिताजी से पूछने की हिम्मत कभी नहीं हुई।
बाद में मुझे पता लगा कि शिकार का शौक मेरे पिता ने उनके पिता से पाया था। जब भी मुझे डर लगता था तो वे मुझे बहादुर बनने को कहते थे। जब मैं 10 साल का था तब शिकार करने पर रोक लग गई। खैर, अब मैं देखता हूँ कि सभी के समझ में यह बात आ गई है कि हमारे आसपास के परिंदे और जानवर हमारे जीवन का हिस्सा हैं और इनका शिकार नहीं करना चाहिए। अब तो शिकार रोकने के लिए बहुत सख्त कानून भी बन गए हैं। यह अच्छी बात है। वैसे कभी भी किसी जंगल के दृश्य को देखकर मुझे अपने बचपन के दिनों की याद आ ही जाती है।