मंगल पांडेय का शहादत दिवस

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भारदेश में व्यापारियों के रूप में आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब भारत को अपने अधीन कर लिया तो लंदन में बैठे उसके आकाओं ने शायद यह उम्मीद भी नहीं की होगी कि एक दिन मंगल पांडेय रूपी कोई तूफान ऐसी खलबली मचा देगा, जो भारत की आजादी की पहली लड़ाई कही जाएगी।

उन्नीस जुलाई 1827 को जन्मे मंगल पांडेय बंगाल नेटिव इन्फैंट्री (बीएनआई) की 34वीं रेजीमेंट के सिपाही थे। सेना की बंगाल इकाई में जब ‘एनफील्ड पी.53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ। तो हिन्दू-मुस्लिम सैनिकों के मन में गोरों के विरूद्ध बगावत के बीज अंकुरित हो गए।

इन कारतूसों को मुंह से खोलना पड़ता था। भारतीय सैनिकों में ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों में गाय तथा सूअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है तथा अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए यह तरकीब अपनाई है।

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इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार चौंतीसवीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर ईसाई उपदेशक के रूप में भी काम करता था। 56वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के कैप्टन विलियम हैलीडे की पत्नी उर्दू और देवनागरी में बाइबल की प्रतियां सिपाहियों को बांटने का काम करती थी। इस तरह भारतीय सिपाहियों के मन में यह बात पुख्ता हो गई कि अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करने की कोशिशों में लगे हैं।

नए कारतूस के इस्तेमाल और भारतीय सैनिकों के साथ होने वाले भेदभाव से गुस्साए मंगल पांडेय ने बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उनकी ललकार से ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में खलबली मच गई और इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी। संदिग्ध कारतूस का प्रयोग ईस्ट इंडिया कंपनी शासन के लिए घातक साबित हुआ।

गोरों ने हालांकि मंगल पांडेय और उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद पर कुछ समय में ही काबू पा लिया था, लेकिन इन लोगों की जांबाजी ने पूरे देश में उथल-पुथल मचाकर रख दी।

मंगल पांडेय को आठ अप्रैल 1857 को फांसी पर लटका दिया गया। उनके बाद 21 अप्रैल को उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद को भी फांसी दे दी गई।

बगावत और इन दोनों की शहादत की खबर के फैलते ही देश में फिरंगियों के खिलाफ जगह-जगह संघर्ष भड़क उठा। हिन्दुस्तानियों तथा अंग्रेजों के बीच हुई जंग में काफी खून बहा। हालांकि बाद में अंग्रेज इस विद्रोह को दबाने में सफल हो गए, लेकिन मंगल पांडेय द्वारा 1857 में बोया गया क्रांति रूपी बीज 90 साल बाद आजादी के वट वृक्ष के रूप में तब्दील हो गया।

भारतीय इतिहास में इस घटना को ‘1857 का गदर’ नाम दिया गया। बाद में इसे आजादी की पहली लड़ाई करार दिया गया। (भाषा)

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